Book Title: Lokprakash Part 01
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh
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( ५६८ )
ग्यारहवां सर्ग
पुद्गलानामस्तिकायमथ किंचित्तनोम्यहम् ।
गुरु श्री कीर्ति विजय प्रसाद प्राप्त धीधनः ॥ १ ॥
श्री मान्यवर्य कीर्ति विजय गुरु महाराज की कृपा से बुद्धिमान बना हुआ मैं
अब पुद्गलास्तिकाय का कुछ स्वरूप कहता हूँ । (१)
द्रव्य क्षेत्र काल भाव गुणैरेषोऽपि पंचधा । अनन्त द्रव्यरूपोऽसौ द्रव्यतस्तत्र वर्णितः ॥२॥
इस पुद्गलास्तिकाय के भी जीवास्तिकाय के समान पांच भेद हैं । १. द्रव्य से, २. क्षेत्र से, ३. काल से, ४. भाव से और ५. गुण के कारण होते हैं । (२)
लोक एवास्य सद्भावात् क्षेत्रतो लोकसंमितः । कालतः शाश्वतो वर्णादिभिर्युक्तश्च भावतः ॥३॥
गुणतो ग्रहण गुणो यतो द्रव्येषु षट्स्वपि । भवेत् ग्रहणमस्यैव न परेषां कदाचन ॥४॥
प्रथम भेद वह अनन्त द्रव्यरूप है । दूसरे भेद से वह लोक प्रमाणरूप है क्योंकि इसका सद्भाव - क्षेत्र से लोक में ही स्थित है। तीसरे भेद से वह काल से शाश्वत है। चौथे भेद से वह वर्ण आदि भाव से युक्त है। पांचवें भेद से इसमें ग्रहण गुण है - यह ग्रहण गुण वाला है, क्योंकि छः द्रव्यों में इससे ही ग्रहण किया जाता है, अन्य किसी का कभी भी ग्रहण नहीं होता है । (३-४)
भेदाश्चत्वार एतेषां प्रज्ञप्ताः परमेश्वरै: ।
स्कन्धा देशाः प्रदेशाश्च परमाणव एव च ॥५॥
इसके जिनेश्वर भगवन्त ने चार भेद कहे हैं । वह इस तरह - १. स्कंध, २. देश, ३. प्रदेश और ४. परमाणु ।
अनंत भेदाः स्कन्धाः स्युः केचन द्विप्रदेशकाः ।
त्रिप्रदेशादयः संख्यासंख्यानन्त प्रदेशकाः ॥६॥
और स्कंध के अनेक भेद हैं। किसी को दो प्रदेश होते हैं, किसी को . तीन प्रदेश होते हैं, कहीं को बढ़ते हुए संख्यात तक प्रदेश होते हैं और किसी को अनन्त प्रदेश होते हैं । (६)
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