Book Title: Lokprakash Part 01
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 599
________________ ( ५६२ ) गोत्रकर्म और नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटा कोटी सागरोपम की है और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणीय कर्म के समान है । (२६८) स्थितिर्जघन्यतो ज्ञान दर्शनावरणीययोः । अन्तर्मुहूर्त प्रमिता तत्वविद्भिर्निरूपिता ॥ २६६॥ · तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहू प्रमाण है । इस तरह तत्व के जानकारों ने कहा है । (२६६) कषाय प्रत्यय बन्धमाश्रित्याल्पीयसी स्थितिः । स्यात् द्वादश मुहूर्त्तात्मा वेदनीयस्य कर्मणाः ॥२७०॥ कषाय प्रत्यय बंधन के आश्रय से वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त्त की होती है । (२७०) उपशान्त क्षीण मोहादिकानां त्व कषायिणाम् । योग हेतु बद्धस्य वेद्यस्य द्वौ क्षणौ स्थितिः ॥ २७१ ॥ उपशान्तमोह और क्षीणमोह आदि अकषाय गुणस्थानों में केवल योग हेतु से बंधन होते वेदनीय कर्म की स्थिति दो समय की है । (२७१) स्थितिर्लब्ध्यन्तर्मुहूर्त मोहनीयस्य कर्मणाः । आयुषः क्षुल्लक भव प्रमिता सा प्रकीर्तिता ॥ २७२ ॥ मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और आयुकर्म की जघन्य स्थिति एक क्षुल्लक - छोटा जन्म जितनी है । (२७२) अष्टाष्टौ च मुहूतीनि गोत्र नाम्नी लघुः स्थितिः । अन्तर्मुहूर्त प्रमिता सान्तरायस्य कर्मणः ॥ २७३॥ गोत्रकर्म और नामकर्म की जघन्य स्थिति आठ- आठ मुहूर्त्त की है । अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त की है । (२७३ ) यावत्कालमनुदयो बद्धस्य यस्य कर्मणः । तावानबाधा कालोऽस्य स जघन्येतरो द्विधा ॥ २७४ ॥ • जिस कर्म का बन्धन किया हो उसका जितने काल तक अनुदय हो उतने काल तक इन कर्मों का अबाधा काल कहलाता है और इसके उत्कृष्ट और जघन्य दो भेद होते हैं । (२७४)

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