Book Title: Lokprakash Part 01
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 597
________________ ( ५६० ) गुर्वादिभक्ति करुणा कषाय विजयादिभिः । बघ्नाति कर्म साताख्यं दाता सद्धर्मदाढर्य युक् ॥ २५६॥ गुरु के प्रति भक्तिभाव के कारण, दया के कारण, तथा कषायों की पराजय करने के कारण, दृढ़धर्मी दाता पुरुष जो कर्म बंधन करता है वह साता वेदनीय कर्म है । (२५६) गुर्वादि भक्तिविकलः कषाय कलुषाशयः । असाता वेदनीयं च बघ्नाति कृपणोऽसुमान् ॥ २५७॥ . जो गुरुभक्ति नहीं करता और कषाय भरे विचारों में लीन रहता है वह प्राणी जो कर्म बन्धन करता है वह असाता वेदनीय कर्म है । (२५७) उन्मार्ग देशको मार्गापलापी साधुनिन्दकः । बघ्नाति दर्शनमोहं देवादि द्रव्य भक्षकः ॥ २५८ ॥ उन्मार्ग का उपदेशक, सन्मार्ग का लोप नाश करने वाला, साधु की निन्दा करने वाला और देव द्रव्य का भक्षण करने वाला जो कर्म बंधन करता है वह दर्शन मोहनीय कर्म है । (२५८) कषाय हास्य विषयादिभिर्बध्नाति देहभृत् । कषायनोकषायाख्यं कर्म चारित्रमोहकम् ॥ २५६ ॥ कषाय, हास्य और विषय आदि के द्वारा प्राणी जो कर्म बन्धन करता है वह कषाय नोकषाय नाम का चारित्र मोहनीय कर्म समझना । (२५६). निबध्नाति नारकायुर्महारम्भ परिग्रहः । तिर्यगायुः शल्ययुक्तो धूर्तश्च जनवंचकः ॥ २६०॥ बड़े से बड़े आरंभ करने वाला और परिग्रह से युक्त पुरुष नरक की आयु बन्धन करता; शल्य युक्त, जनवंचक धूर्त्त मनुष्य तिर्यंच का आयुष्य बंधन करता है । (२६०) नरायुर्मध्यमगुणः प्रकृत्याल्प कषायकः । दानादौ रुचिमान् जीवो बध्नाति सरलाशयः ॥ २६१॥ जिसमें साधारण गुण होते हैं, प्रकृति से ही कम कषाय होते हैं और जिसे दानादि में प्रेम उत्पन्न होता हो व सरल स्वभावी प्राणी मनुष्य की आयुष्य बन्धन करता है । (२६१)

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