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६- अयुक्त वचन बोलने वाला भी स्वीकार करने में आये वह उसका आदेय नामकर्म है । १०- पृथ्वी में किसी प्राणी की यश कीर्ति फैले वह उसका यश नामकर्म समझना । (२२७)
तत्र च - पराक्रम तपस्त्यागाद्युद्भूत यशसा हि यत् ! कीर्त्तनं श्लाघनं ज्ञेया सा यशः कीर्तिरुत्तमैः ॥२२८ ॥
यद्वा दानादिजा कीर्तिः पराक्रमकृतं यशः ।
एक दिग्गामिनी कीर्तिः सर्वद्विग्गामुक यशः ॥२२६॥
और यहां पराक्रम, तप, दान आदि से लोक में जो प्रशंसा होती है उसका नाम यश- कीर्ति है अथवा इनमें दान आदि से जो होता है वह कीर्ति है और पराक्रम से जो होता है वह यश है अथवा थोड़े विभाग में गाया जाता हो वह कीर्ति कही जाती है और जो सर्वत्र गाया जाय वह यश जानना । (२२८-२२६)
स्थावरः स्यात् स्थावराख्यात् सूक्ष्मः स्यात्सूक्ष्म नामतः । अपर्याप्तोऽङ्गी म्रियेतापर्याप्त नामकर्मतः ॥ २३०॥
११ - प्राणी स्थावर जन्म लेता है वह स्थावर नामकर्म के कारण लेता है । १२- सूक्ष्म में जन्म लेता है वह सूक्ष्म नामकर्म से लेता है । १३ - प्राणी सर्व पर्याप्त पूर्ण किए बिना मृत्यु प्राप्त करता है वह इसके अपर्याप्त नामकर्म के कारण है (२३०)
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साधारणांगः स्यात् साधारणाख्य नामकर्मतः ।
. अस्थिरास्थिदन्त जिव्हा कर्णादिः अस्थिरोदयात् ॥२३१॥
१४- प्राणी साधारण शरीर वाला होता है वह इसके साधारण नामकर्म के उदय से होता है । १५- किसी के अस्थि, दांत, जीभ, कान आदि अस्थिर हों वह उसका अस्थिर नामकर्म समझना । (२३१)
नाभेरधोऽशुभं पादारिकं चाशुभनामतः । उपकर्त्ताप्यनिष्टः स्याल्लोकानां दुर्भगोदयात् ॥२३२॥
१६- नाभि के नीचे का विभाग चरण आदि अशुभ होता है उस प्राणी का अशुभ नामकर्म समझना । १७- उपकार करने पर भी कोई अपने को नहीं चाहता तो वह अपना दुर्भग नामकर्म समझना । (२३२)