Book Title: Lokprakash Part 01
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 590
________________ (५५३) ये बन्धन न हों तो संघात नामकर्म द्वारा संहरायल पुद्गलों का परस्पर बंधन घटता नहीं है । जिस तरह पत्रकरादि से संगृहीत साथवा (सक्तु) का घी आदि चिकने पदार्थ बिना बंधन नहीं होता है । (२१४-२१५) औदारिकादि योग्यानां स्यात् संघातन नाम तु । संग्राहकं पुद्गलानां दन्तालीव तृणावलेः ॥२१६॥ जो संघातन नामकर्म है वह औदारिक आदि योग्य पुद्गलों को नजदीक लाने वाला है, जिस तरह दंताली (दरांती) तृण समूह को ग्रहण करती है वैसे ही । (२१६) षणां संहननानां च संस्थानानां च तावताम् । तत्तद्विशेषकारीणि स्युर्नामानि तदाख्यया ॥ २१७॥ तत्तद्वर्ण गन्ध रस स्पर्श निष्पत्ति हेतव । वर्णादि नाम कर्माणि विंशतिः स्युः शरीरिणाम् ॥२१८॥ छः संहनन है और छः संस्थान हैं। उनके नाम ही उनकी विशिष्टता कह देते हैं । प्राणी के वर्णादि बीस नामकर्म हैं । वह वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की I निष्पत्ति के हेतुभूत हैं । (२१७-२१८) द्वित्रिचतुः समयेन प्रसर्पतां विग्रहेण परलोकम् । कूर्पर लांगल गोमूत्रिकादिवद् गमन रूपायां ॥२१६॥ स्यादुदय आनुपूर्व्याः वक्रगतो वृषभरज्जु कल्पायाः । स्व स्वगति समाभिख्याः चतुर्विधास्ताश्च गति भेदात् ॥ २२०॥ कपूर, लांगल और गोमूत्रिका के समान वक्र रूप टेढ़ा-मेढ़ा चलने से जिन प्राणियों को परलोक में पहुँचाने में दो, तीन या चार समय लगता है; उनको उस रीति से चलाना वह वृषभ रज्जु समान आनुपूर्वी का काम है । जो प्राणी जिस गति में जाता है उस गति का जो नाम है वही उस प्राणी की आनुपूर्वी का नाम है अर्थात् आनुपूर्वी भी चार प्रकार की होती है - नरक आनुपूर्वी, तिर्यंच आनुपूर्वी, मनुष्य आनुपूर्वी और देव आनुपूर्वी । (२१६-२२०) गतिर्वृषभवत् श्रेष्ठा सद् विहायोगतेर्भवेत् । खरादिवत् सा दुष्टा स्यादसत्खगति नामतः ॥ २२१ ॥ बृषभ जैसी श्रेष्ठ गति हो तो उसे 'सद्विहायोगति नामकर्म' से, तथा गर्दभ ( गधे ) जैसी दुष्ट गति हो, उसे 'असद्विहायोगति नामकर्म' से कहा गया है। नाम कर्म की सौध पिण्ड प्रकृति प्रयोजन से है (२२१)

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