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यतः स्वयमनुष्णोऽपि भवत्युष्णप्रकाशकृत् । तदा तप नामकर्म रविबिम्बमिवाङ्गिनाम् ॥२३८॥
२३- प्राणी स्वयं अनुष्ण होने पर भी सामने वाले को सूर्य बिम्ब के समान सूर्य के समान उष्ण प्रकाश वाला लगता है, वह आताप नाम कर्म समझना ।
(२३८)
उष्ण स्पर्शोदयादुष्णस्यागेर्या तु प्रकाशिता । न ह्यातपात्सा किन्तु स्यात्तादृग्लोहित वर्णतः ॥२३६॥
अग्नि में जो उष्ण प्रकाश है वह वैसा प्रकाश के रक्त वर्ण-वर्ण के कारण है वह आताप नाम कर्म के कारण है । इस तरह मत समझना । (२३६)
... तदुद्योत नामकर्म यतोऽनुष्ण प्रकाशकृत् । ... भवति प्राणिनामंगं खद्योत ज्योतिरादिवत् ॥२४०॥
२४- प्राणी स्वयं अनुष्ण होने पर भी उसका अंग जगन की ज्योति के समान प्रकाश करता हो तो वह उद्योत नामकर्म के उदय के कारण समझना । (२४०) .: रत्नौषध्यादयोऽप्येवमुद्योत नाम कर्मणा । .. द्योतन्ते मुनिदेवाश्च विहितोत्तर वैक्रियाः ॥२४१॥
रत्न, औषधि और उत्तर वैक्रिय करने वाले मुनि तथा देवता उद्योतवंत होते है । यह इसी ही नामकर्म का परिणाम है । (२४१) . . यतोवपुर्नाति गुरु नाति लघ्वङ्गिनां भवेत् ।
नामकर्मा गुरु लघु तदुक्तं युक्ति कोविदः ॥२४२॥ . २५- प्राणी का शरीर अति भारी न हो तथा अति हल्का भी न हो वह इसका अगुरुलघु नामकर्म समझना । (२४२)
तद्भवेत्तीर्थ कृन्नाम यतस्त्रिजगतोऽपि हि । - अर्चनीयो भवत्यङ्गी प्रातिहार्यालंकृतः ॥२४३॥ ___. २६- कोई प्राणी प्रातिहार्य आदि से शोभायमान और तीन जगत् में पूजनीय होता है उसमें तीर्थंकर नामकर्म हेतुभूत समझना । (२४३)
तद्विशतेः स्थानका नामाराधनान्निकाच्यते । भवे तृतीये नृगतावेव सम्यक्त्व शालिना ॥२४४॥