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(५५४) प्रसा द्वि त्रि चतुः पंचेन्द्रिया स्युस्त्रसनामतः । • स्युः बादरा बादराख्यात् पृथ्व्यादयोऽङ्गिनः ॥२२२॥
इस तरह नामकर्म की चौदह पिंड प्रकृति के प्रयोजन के विषय में कहा। अब इसकी अट्ठाईस प्रत्येक प्रकृति के प्रयोजन के विषय में कहते हैं । १- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौरिन्द्रय और पंचेन्द्रिय जीव त्रस नामकर्म के कारण त्रस होता है ।२- स्थूल पृथ्वीकाय आदि जीव बादर नामकर्म के कारण बादर होता है । (२२२) ... .. लब्धिकरण पर्याप्ताः पर्याप्त नामकर्मतः ।...
प्रत्येक तनवो जीवाः स्युः प्रत्येकाख्य कर्मणा ॥२२३॥
३- जीव लब्धि पर्याप्त और करण पर्याप्त होता है वह पर्याप्त नामकर्म के कारण है । और ४- जीव का प्रत्येक शरीर होता है वह प्रत्येक नामकर्म के कारण से है । (२२३)
स्थिर नामोदयाद्दन्तास्थ्यादि स्यात् स्थिरमङ्गिनाम्। नामरूधं च मूर्धादि शुभनामोदयान् शुभम् ॥२२४॥
५- प्राणी के अस्थि, दांत आदि स्थिर होते हैं वह स्थिर नामकर्म के उदय से समझना । ६-प्राणी की नाभि के ऊपर का शीर्षादि भाग शुभ होता है यह शुभ नामकर्म के उदय के कारण है । (२२४) ।
स्पृष्टो मूर्धादिना ह्यन्यः शुभत्वादेव मोदते । अशुभत्वादेव परः स्पृष्टः क्रुध्येत् पदादिना ॥२२५॥
क्योंकि एक प्राणी शुभ नामकर्म के कारण ही मुख मस्तक आदि से आनन्दित होता है और अन्य प्राणी अशुभ नामकर्म के कारण चरणांदिक स्पर्श से क्रोधं करता है । (२२५)
स्यात्प्रियोऽनुपकर्तापि लोकानां सुभगोदयात् । मनोरम स्वरः प्राणी भवेत्सुस्वर नामतः ॥२२६॥
७- लोगों पर उपकार न करता हो फिर भी एक मनुष्य लोकप्रिय हो जाता हैं, यह उसका सुभग नामकर्म समझना । ८- प्राणी का स्वर मनोहर हो वह उसका सुस्वर नामकर्म समझना । (२२६)
अयुक्तवाद्यप्यादेयवाक् स्यादादेय नामतः । यशो नाम्नो यशः कीर्तिः व्याप्नोति भुविदेहि नाम् ॥२२७॥