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(५४०) व्योमादिवदमूतत्वे त्वस्य विश्वांगि साक्षिकौ । नैतत्कृतानुग्रहोपघातौ संभवतः खलु ॥१३२॥ .'
यदि इस कर्म को आकाश आदि के समान अरूपी मानें तो इससे होने वाले अनुग्रह और उपघात आदि सर्व प्राणियों को प्रत्यक्ष हैं- वह संभव नहीं हो सकता है। (१३२)
हेतवः कर्मबन्धे च चत्वारो मूल भेदतः । सप्तपंचाशदेते च स्युस्तदुत्तर भेदतः ॥१३३॥ .
कर्म बंधन का मूल चार हेतु हैं अर्थात् चार प्रकार से कर्म बन्धनं होता है, जब कि उत्तरोत्तर तो कर्म बंधन में सत्तावन हेतु हैं । (१३३)
मिथ्यात्वाविरति कषाय योग संज्ञाश्च मूलभेदाः स्युः। तत्र च पचं विधं स्यान्मिथ्यात्वं तच्च कथितं प्राक् ॥१३४॥ ..
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग- ये चार मूल हेतु हैं ! इसमें जो मिथ्यात्व है उसके पांच भेद हैं । इसका वर्णन पहले कह गये हैं । (१३४).
असंयतात्मनां स्यात् द्वादशधाविरतिः खलु । षट् कायारंभ पंचाक्ष चित्ता संवर लक्षणा ॥१३५॥
संयम रहित प्राणी को छ: काय का आरंभ रूप है और पांचों इन्द्रिय तथा छठा मन- इन छह का संवर नहीं रखना, इस तरह बारह प्रकार की अविरति होती है। (१३५)
.कषाया नो कषायाश्च प्राक षोडश नवोदिताः ।
योगास्तथा पंचदश सप्त पंचाशदित्यमी ॥१३६॥
सोलह कषाय हैं और नौ नोकषाय हैं, इनका वर्णन पहले कर चुके हैं तथा योग पन्द्रह प्रकार का है- इस तरह सत्तावन उत्तरहेतु होते हैं । (१३६)
कर्मबन्धः प्रकृत्यात्मा स्थितिरूपो रसात्मकः । प्रदेश बन्ध इत्येवं चतुर्भेदः प्रकीर्तितः ॥१३७॥
कर्म बन्धन चार प्रकार से होता है- १. प्रकृत्यात्मक (प्रकृतिबंध), २. स्थिति रूप (स्थिति बंध), ३. रसात्मक (रसबंध) और ४. प्रदेशबन्ध । (१३७)
प्रकृतिस्तु स्वभावः स्यात् ज्ञानावृत्यादि कर्मणाम् । यथा ज्ञानाच्छादनादिः स्थितिः काल विनिश्चयः ॥१३८॥