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अब पूर्व चौथे सर्ग में सैंतीस द्वार द्वारा जीवास्तिकाय का जो निरूपण किया है वह द्रव्य क्षेत्र, काल भाव और गुण- इन पांच दृष्टिबिन्दु से पांच प्रकार का होता है । (१२५)
अनन्त जीव द्रव्यात्मा द्रव्यतोऽसावुदीरितः । क्षेत्रतो लोकमात्रोऽसौ सत्त्वात्तेषां जगत्रये ॥१२६॥ कालतः शाश्वतो वर्णादिभिः शून्यश्च भावतः । उपयोग गुणश्चासौ गुणतः परिकीर्तितः ॥१२७॥
द्रव्य के दृष्टि बिन्दु से अर्थात् द्रव्य से ये अनन्त जीव द्रव्यात्मक हैं, क्षेत्र से लोक केवल प्रमाण है क्योंकि तीन जगत् में इसका अस्तित्व है, काल से वह शाश्वत हैं, भाव से वर्णादि रहित है और गुण से उपयोग गुण वाला है । (१२६-१२७)
निरन्तरं बध्यमानैः सं च कर्म कदम्बकैः । विंस्थुलो भवाम्भोधौ बहुधा चेष्टतेऽङ्ग भाक् ॥१२८॥
यह जीव निरन्तर बन्धन होते विशाल कर्म बन्धन के कारण अधिकतः अस्थिर रूप में भव समुद्र में परिभ्रमण किया करता है। (१२८) ...: पुद्गलैर्निचिते लोकेऽञ्जन पूर्ण समुद्गवत् । . मिथ्यात्वं प्रमुखैर्भूरि हेतुभिः कर्म पुद्गलान् ॥१२६॥
. करोति जीवः संबद्धान् स्वेन क्षीरेण नीरवत् ।
लोहेन वह्निवद्धा यत् तत्कर्मेत्युच्यते जिनैः ॥१३०॥ युग्मं । - अंजन से भरी डब्बी के समान यह लोक पुद्गलों से भरा हुआ है, उस में जीव मिथ्यात्व आदि अनेक हेतुओं द्वारा कर्म के पुद्गलों को क्षीर- नीर के समान अथवा लोहाग्नि के समान अपने साथ में सम्बद्ध करता है । उस पुद्गल को जिनेश्वर भगवन्त ने कर्म कहा है । (१२६-१३०) ... तच्च कर्म पौद्गलिकं शुभाशुभ रसांचितम् ।
न त्वन्य तीर्थिकाभीष्टादृष्टादि वदमूर्तकम् ॥१३१॥
जो कर्म शुभ-अशुभ रस युक्त हो वह पुद्गलिक है, अन्य मत वालों ने जो अदृष्ट आदि माना है, इसके समान यह अरूपी नहीं है । (१३१)