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ब्रद्धं विवक्षितं कर्म कर्मत्वेन हि तिष्ठति । यावत्कालं स्थितिः सा स्यात् त्यजेत्तत्ता ततः परम् ॥१३६॥
ज्ञान आदि का आच्छादन करने वाले कर्मों के ज्ञानवरणीय कर्म का जो स्वभाव है उसका नाम कृति है । स्थिति अर्थात् काल का निश्चय कर्म बन्धन किया हो वह अमुक काल तक कर्मस्वरूप सत्ता में रहकर फिर उस स्थिति को छोड़ देता है, वह अमुक काल वह स्थिति समझना । (१३८-१३६) . रसो मधुर कट्वादिः सदसत्कर्मणां मतः ।
भवेत् प्रदेश बन्धस्तु दलिकोपचयात्मकः ॥१४०॥ रस सत् अर्थात् शुभ कर्मों का मधुर रस कहलाता है और असत् कर्मों का कड़वा रस कहलाता है । जीव के ऊपर कर्म के दल-समुदाय अर्थात् स्तर का स्तर बंधन करने में आए वह प्रदेशबन्ध कहलाता है । (१४०)
यथा हि मोदकः कश्चित्ः प्रकृत्या वातहत् भवेत् ।
शुंठयादि जन्मा कश्चित्तु पित्तनुज्जीरकादिजः ॥१४१॥
इन प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश (दल) को लेकर कर्म की एक मोदक (लड्डू) के साथ में समानता करने में आती है- जिस तरह सोंठ आदि डालकर बना हुआ लंड्डू हो उसकी वायु दूर करने की प्रकृति हो जाती है, और जीरा आदि डालकर बने लड्डू पित्तहरण करने की प्रकृति हो जाती है उसी तरह कर्म भी अमुकप्रकृति-स्वभाव का होता है । (१४१)
कश्चित्पक्ष स्थितिः कश्चिन्मासप्रभृतिक स्थितिः। स्यात्कश्चिन्मधुरः कश्चितिक्तः कश्चित्कटुस्तथा ॥१४२॥
जिस तरह कोई लड्डू एक पखवारा की स्थिति वाला होता है अर्थात् इतनी मुद्दत तक रह सकता है, और कोई एक महीने की स्थिति वाला होता है। इसी तरह कर्म की अमुक स्थिति होती है । जिस तरह कोई लड्डु मधुर होता है और कोई कड़वा भी होता है । इसी तरह कर्म का भी अमुक रस होता है । (१४२)
कश्चित्सेरदलः कश्चित् द्वयादिसेरदलात्मकः । . कार्यैवं भावना विज्ञैः प्रकृत्यादिषु कर्मणाम् ॥१४३॥
जिस तरह कोई लड्डू एक सेर-किलो दल (वजन) का होता है और कोई दो किलो का भी होता है । इसी तरह कर्म भी भारी हल्के होते हैं । (१४३)