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(५०४) केवलं देव देवी समुदाय एव वक्ष्यतेईशानतश्च सौधर्मे स्यात् संख्येयगुणधिकः । देव देवी समुदायो भवनेशानथ बुवे ॥१०७॥
इसलिए अब देव- देवियों की एकत्रित संख्या ही कही जायेगी । ईशान देवलोक से लेकर सौधर्म देवलोक तक में देव- देवियों की कुल संख्या एक दूसरे से संख्यात-संख्यात गुणा अधिक है। (१०७).
अंगुल प्रमित क्षेत्र प्रदेश राशि वर्तिनि । . . द्वितीय वर्ग मूलघ्ने वर्गमूले किलादिमे ॥१०॥ यावान् प्रदेश राशिः स्यात्तावन्मानासु पंक्तिषु । घनीकृतस्य लोकस्याथैक प्रादेशिकीषु वै ॥१०॥ नभः प्रदेशा यावन्तस्तावान् पुरुषपुंगवैः । .
देव देवी समुदायः ख्यातो भवनवासिनाम् ॥११०॥ त्रिविशेषकम् ।
तथा भवनपति देव- देवियों की कुल संख्या एक अंगुल प्रमाण क्षेत्र प्रदेश की राशि में रहे हैं और दूसरे वर्ग से गुणा किया है, ऐसे प्रथम वर्ग मूल में जितनी प्रदेश राशि होती है उतने मान वाली एक प्रदेशी श्रेणियों में घनरूप किए हुए लोकाकाश के जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने होते हैं। (१०८-११०)
यावन्ति संख्य योजन कोटि माननि दैर्ध्यतः । सूचि रूपाणि खंडानि स्युरेक प्रतरे किल ॥१११॥ व्यन्तराणां देव- देवी समुदायो भवेदियान् । ज्योतिष्कदेव देवीनां प्रमाणमथ कीर्त्यते ॥११२॥
तथा व्यन्तर देव देवियों की कुल संख्या एक प्रतर के अन्दर संख्यात कोटी योजन की लम्बाई के जितने सूचिरूप खण्ड होते हैं उतनी उनकी संख्या होती है। अब ज्योतिष्क देव- देवी प्रमाण कहते हैं। (१११-११२)
षट पंचाशांगुलशतद्वयमाना हि दैय॑तः । यावन्त एक प्रतरे सूचिरूपाः स्युरंशकाः ॥११३॥ ज्योतिष्क देव देवीनां तावान् समुदयो भवेत् 1 उक्तं प्रमाणमित्येवमथाल्प बहुतां बुवे ॥११४॥ ..
इति मानम् ॥३२॥