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और वहां से वापिस सातवें नरक में जाता है और वहां से वापिस तिर्यंच में ही जाता है । फिर सातवें नरक में नहीं जाता । इस तरह सात बार जन्म लेकर आठवें जन्म में अन्य जन्म धारण करता है । (११ से १३ )
तियंग ज्येष्ठायुर्जघन्यायुष्कोऽथोत्कृष्ट जीविताम् । अवाप्नुवनमाघवत्यां भवान् पंचैव पूरयेत् ॥१४॥ उत्पद्यते द्विर्नरके तत्र तिर्यक्षु च त्रिशः । ततश्चासौ षष्टभवे नो भवेत्सप्तम क्षितौ ॥१५॥
उत्कृष्ट आयुष्य वाला अथवा जघन्य आयुष्य वाला तिर्यंच माघवती नरक में उत्कृष्ट आयुष्य प्राप्त कर पांच ही जन्म धारण करता है । वह दो बार नरक में और तीन बार तिर्यंच में उत्पन्न होता है । फिर छठे जन्म में वह सातवें नरक में उत्पन्न नहीं होता । (१४-१५)
उत्कृष्टायुष्टयाल्पायुष्टया वा सप्तम क्षितौ । तिर्यक् ज्येष्ठायुरन्यो वा त्रिभवः स्याज्जघन्यतः ॥१६॥ तंत्र तिर्यग्भवौ तु द्वावेकः स्यात्सप्तम क्षितौ । माघवत्या नारकाणां तिर्यंक्ष्वेव गतिर्यतः ॥ १७ ॥
उत्कृष्ट आयुष्य वाला अथवा जघन्य आयुष्य वाला तिर्यंच, उत्कृष्ट आयुष्य अथवा जघन्य आयुष्य को लेकर जो सातवें नरक में उत्पन्न हो तो वह जघन्य से तीन जन्म करता है । इसमें दो जन्म तिर्यंच के होते हैं और एक जन्म सातवें नरक में जाता है क्योंकि माघवती नरक के जीवों की गति तिर्यंच में ही होती है। (१६-१७)
चतुर्भग्या नरः संज्ञी सप्तमं नरकं व्रजन् । 'जघन्यादुत्कर्षतोऽपि सवंपूरयेद् भवद्वयम् ॥१८॥
संज्ञी मनुष्य चतुर्भंगी द्वारा सातवें नरक में जाता है तो जघन्य तथा उत्कृष्ट दो जन्म पूर्ण करता है । (१८)
आनतादि चतुः कल्प्यां सर्वग्रैवेयकेषु च । चतुर्भग्योद्भवन् मर्त्यः सप्तोत्कर्षात् भवान् सृजेत् ॥१६॥ त्रिर्देवेषु चतुस्तत्र समुत्पद्य नरेष्वसौ । अवश्यमन्य पर्यायमवाप्नोत्यष्टमे भवे ॥२०॥