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दसवां सर्ग .इदानीं भव संवेधः प्रागुद्दिष्टो निरूप्यते । तत्र ज्येष्ठक निष्टायुश्चतुभंगी प्रपंच्यते ॥१॥
अब पूर्व में जो कहा था उस भव संवेध के विषय में निरूपण करता हूँ। इसमें पूर्व जन्म और पर जन्म के तथा उत्कृष्ट और जघन्य आयुष्य के भेद को लेकर चार विभेद-विभाग होते हैं । वह किस तरह होते हैं, उसे विस्तारपूर्वक समझाता हूँ । (१)
संसारी जीवों के स्वरूप का वर्णन अमुक सैंतीस द्वारों से करने में आया है, उसमें यह भवसंवेद्य छत्तीसवां द्वार है । इसके अर्थ और व्याख्या के लिए इस ग्रन्थ के तीसरे सर्ग में श्लोक १४१२ से १४१५ तक कहा है । उस भवसंवेद्य का स्वरूप इस दसवें सर्ग में ६५ श्लोक में, उसके बाद ३७वां द्वार महा अल्प बहुत्व का स्वरूप ६६ से १२४ तक के श्लोक में वर्णन किया है ।
आधः प्राच्याग्रयभवयोज्येष्ठमायुर्यदा भवेत् । भंगोऽन्यः प्राग्भवे ज्येष्ठमल्पिष्टं स्यात्परे भवे ॥२॥
जब पूर्वजन्म का तथा परजन्म का- इस तरह दोनों जन्म का उत्कृष्ट आयुष्य हो तब पहला विभेद-विभाग.कहलाता है । जब पूर्वजन्म का उत्कृष्ट । और परजन्म का जघन्य आयुष्य हो तब दूसरा विभाग कहलाता है । (२)
तृतीयः प्राग्भवेऽल्पीयो ज्येष्ठमायुर्भवपरे । आयुर्लघु द्वयो स्तुर्यो भंगेष्वेषु चतुर्वथ ॥३॥ संज्ञी नरोऽथवा तिर्यक् षष्ट्याद्यनरकेषु वै । पृथक्- पृथक् भवानष्टावुत्कर्षेण प्रपूरयेत् ॥४॥ युग्मं ।
जब-पूर्वजन्म में जघन्य और आगे के जन्म में उत्कृष्ट आयुष्य हो तब तीसरा विभाग कहलाता है और जब पूर्व और पर-दोनों जन्म में जघन्य आयु हो तब चौथा विभाग कहलाता है । इन चारों विभागों में संज्ञी मनुष्य या तिर्यंच छठी आदि नरक में अलग- अलग उत्कृष्ट आठ जन्म करता है । (३-४)
यथा संज्ञी नरस्तिर्यगुत्पन्नो नरके क्वचित् । ततो मृतो मनुष्ये वा तिरश्चि वा ततः पुनः ॥५॥ तत्रैव नरके भयो मत्र्ये तिरश्चि वेति सः ।। भवानष्टौ समापूर्य नवमे च भवे ततः ॥६॥