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(५२०) वनस्पति की उत्कृष्टकाय स्थिति के समान है और जघन्य तो अन्तर्मुहूर्त ही है। (३७)
यह अन्तर द्वार है । (३५) नारक लोक निरूपणमेव क्लृप्तमशेष विशेष विमुक्तम् । शेषमधो जगदुक्त्यधिकारे किंचिदिहैव विशिष्य च वक्ष्ये ॥३८॥
इस तरह से नरक लोक का संक्षिप्त वर्णन किया है । विशेष वर्णननिरूपण इसी ग्रन्थ के अन्दर अधो लोक के अधिकार में कहा जायेगा । (३८)
विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रातिष - द्राजश्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे, . संपूर्णो नवम सुखेन नवमः सर्गो निसर्गोज्ज्वलः ॥३६॥
॥इति नवमः सर्गः ॥ सारे जगत् को आश्चर्यचकित करने वाली कीर्ति के स्वामी श्री कीर्ति विजय जी उपाध्याय के अन्तेवासी तथा माता राजश्री तथा पिता तेजपाल के सुपुत्र विनय विजय उपाध्याय ने जगत् के निश्चयभूत तत्वों को दीपक के समान प्रकाश में लाने वाले इस ग्रंथ की जो रचना की है उसका कुदरती सौन्दर्य वाला नौंवां सर्ग विघ्नरहित संपूर्ण हुआ । (३६)
॥ नौवां सर्ग समाप्त ॥'