________________
(५१८)
हो उतनी एक प्रदेश श्रेणि में जितने आकाश प्रदेश हों उतने सामान्यतः नरक होते हैं, ऐसा श्री जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है। अब इस विषय में विशेष कहते हैं। (२२ से २४)
अंगुल प्रमित क्षेत्र प्रदेश राशि संगते । तृतीय वर्ग मूलने प्रथमे वर्ग मूलके ॥२५॥ यावान् प्रदेश निकरस्तत्प्रमाणासु पंक्तिषु । एक प्रादेशिकीषु स्युर्यावन्तः ख प्रदेशका ॥२६॥ तावन्तो मानतः प्रोक्ता नारकाः प्रथमक्षितौ । शेषासु षट्सु च मासु ख्याता नैरयिकांगिनः ॥२७॥ घनीकृतस्य लोकस्य श्रेण्य संख्यांश वर्तिभिः । नभः प्रदेशैः प्रमिता विशेष एष तत्र च ॥२८॥कलापकम्। आरभ्य सप्तमक्ष्माया द्वितीय वसुधावधि । असंख्येय गुणत्वेन यथोत्तराधिकाधिकाः ॥२६॥
इति मानम् ॥३२॥ अंगुल प्रमाण क्षेत्र प्रदेश की राशि में रहे और तीसरे वर्ग मूल से गुणा करने से प्रथम वर्गमूल में जितनी प्रदेश राशि होती है उतने प्रमाण वाली एक प्रदेशी श्रेणी में जितने आकाश प्रदेश हों उतने नारकी जीव प्रथम नरक में कहे हैं। शेष छ: नरक, घन किए लोक की श्रेणि के असंख्यातवें भाग में जितना आकाश प्रदेश है उतने होते हैं। विशेष में इतना है कि सातवें नरक से लेकर दूसरे नरक तक उत्तरोत्तर असंख्य गुणा होते हैं। (२५ से २६) ।
यह मान द्वार है। (३२) सर्वाल्पाः सप्तमक्ष्मायामसंख्येय गुणास्तत्तः । . भवन्ति नारकाः मासु षष्टयादिषु यथा क्रमम् ॥३०॥ संज्ञिपंचेन्द्रिय तिर्यंग मनुष्याः सप्तम क्षितौ । सर्वोत्कृष्ट पापकृत उत्पद्यन्तेऽल्पकाश ते ॥३१॥ किंचिद्धीन हीनतरपाप्मानः प्रोद् भवन्ति च । षष्टयादिषु ते च भूरि भूरयः स्युर्यथोत्तरम् ॥३२॥
इति लघ्वी अल्प बहुता ॥३३॥ . .