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आनत आदि चार देवलोक के और सर्व ग्रैवेयक के देव मनुष्य गति में आकर उत्कृष्टतः छः जन्म करते हैं । (३५)
मनुष्येषूत्पद्यमानाः विजयादि विमानगाः । भवांश्चतुर उत्कर्षात् पूरयन्ति निरन्तरम् ॥३६॥
विजय आदि विमान में रहे देव मनुष्य गति प्राप्त कर निरन्तर उत्कृष्टतः चार जन्म पूरे करते हैं । (३६)
जघन्य तस्त्वानतादि देवा द्विभव पूरकाः । यतश्च्युतानामेतेषां नोत्पत्तिर्मनुजान्विना ॥३७॥ . .
आनत आदि देव जघन्यतः दो जन्म पूरे करते हैं क्योंकि वहां से च्यवन करें तब इनको मनुष्य गति के अलावा अन्य कोई गति नहीं है । (३७)
उत्कर्षतो जघन्याच्च सुराः सर्वार्थ सिद्धिजाः । .. . मनुष्येषु समुत्पद्य पूरयन्ति भव द्वयम् ॥३८॥
सर्वार्थ सिद्ध में उत्पन्न हुआ देव मनुष्य में उत्पन्न होकर उत्कर्षतः तथा जघन्यतः दो जन्म धारण करता है । (३८)
भवन व्यन्तर ज्योतिः सौधर्मेशान नाकिनः । पृथिव्यप्तरूषूत्पद्यमाना द्वि भवपूरकाः ॥३६॥ जघन्यादुत्कर्षतोऽपि भूयोऽप्युत्त्पत्यसम्भवात् । तेषां निर्गत्य पृथ्व्यादेर्भवनेशादि नाकिषु ॥४०॥ युग्मम् ॥
भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ईशान देवलोक के देव पृथ्वी, अप् और वनस्पति में उत्पन्न हों तो दो भव करते हैं, क्योंकि पृथ्वीकाय आदि में से निकल कर फिर इनकी जघन्य से तथा उत्कर्ष से भी भवनपति आदि देवों में उत्पत्ति होना संभव नहीं होता । (३६-४०) .
वायुतेजः काययोस्तु देवानं गत्य सम्भवात् । .. तदीयो भवसंवेद्यो नात्र प्रोक्तो जिनेश्वरैः ॥४१॥
तथा वायुकाय अथवा अग्निकाय में देवों की गति नहीं है, इसलिए श्री जिनेश्वर भगवन्त ने इनका भवसंवेद्य नहीं कहा । (४१)
असंज्ञिसंज्ञि तिर्यंचो नराः संजिन एव च । । असंख्यायुर्नुतिर्यक्षु पूरयन्ति भव द्वयम् ॥४२॥