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इससे असंख्य से असंख्य गुणा अनुक्रम से इस प्रकार के चौदह हैंमाघवती नरक का जीव, मघा का नारक, सहस्रार के देवता, महाशुक्र के देव, अरिष्टय के नारक, लांतक के देव, अंजना नरक के जीव, ब्रह्मलोक के देवता, शैला नरक के जीव, माहेन्द्र देवलोक के देव, सनत् कुमार के देव, वंशा के नारक जीव, संमूर्छिम मनुष्य और ईशान देवलोक के देव । (१०० से १०३) ईशानस्थ सुरेभ्यस्तद्देव्यः संख्य गुणास्ततः ।
सौधर्म देवास्त द्देव्यस्तेभ्यः संख्या गुणाः स्मृताः ॥ १०४ ॥ असंख्येय गुणास्तेभ्यो भवनाधिप नाकिनः । भवनाधिप देव्यश्च तेभ्यः संख्य गुणाधिकाः ॥१०५॥
और ईशान देवलोक के देव से इनकी देवियां संख्यात गुणा हैं, इससे संख्यात गुणा सौधर्म देवलोक के देव हैं, इससे संख्यात गुणा इनकी देवियां हैं । इससे असंख्य गुणा भवनपति देव और इससे संख्यात गुणा इनकी देवियां हैं । (१०४-१०५)
ताभ्योऽसंख्यगुणाः प्रोक्ताः प्रथम क्षिति नारकाः ।
तेभ्योऽप्यसंख्येय गुणाः पुमांसः पक्षिणः स्मृताः ॥१०६॥
इससे असंख्य गुणा पहले नरक के नारकी जीव हैं और इससे भी असंख्य गुणा नरपक्षी होते हैं । (१०६)
पक्षिण्योऽथ स्थल चरास्तस्त्रियोऽम्बुचरा अपि । अम्बुचर्योव्यन्तराश्च व्यन्तर्यो ज्योतिषामराः ॥१०७॥
ज्योतिष्क देव्यः खचर क्लीवा स्थल पयश्चराः । नपुंसका एव ततः पर्याप्ताश्चतुरिन्द्रियाः ॥१०८॥
क्रमेण संख्येय गुणा पक्षिण्याद्यास्त्रयोदश ।
ततः पर्याप्त पंचाक्षा अधिकाः संज्ञ्य संज्ञिनः ॥ १०६ ॥ विशेषकं ।
तथा पक्षी, स्थलचर और स्थलचरी, जलचर और जलचरी, व्यन्तर और व्यन्तरियां, ज्योतिषी देव और देवियां, नपुंसक वेदी खेचर, स्थलचर, जलचर और पर्याप्त चतुरिन्द्रियं - ये तेरह अनुक्रम से संख्यात से संख्यात गुणा होते हैं और इससे अधिक संज्ञी व असंज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय होते हैं । (१०७ से १०६)
तेभ्यः पर्याप्तकाद्वयक्षाः पर्याप्तस्त्रीन्द्रियास्ततः । क्रमाद्विशेषाभ्यधिकाः प्रज्ञप्ताः परमेश्वरैः ॥११०॥