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यदस्य नरके स्वर्गे चौत्पन्नस्य ततः पुनः । असंज्ञि तिर्यक्षत्पत्तिर्भवे नानन्तरे भवेत् ॥२८॥
असंज्ञी पर्याप्त तिर्यंच, रत्नप्रभा में तथा भवनपति और व्यन्तर में भी दो जन्म लेता है क्योंकि नरक और स्वर्ग में उत्पन्न होने से उनकी वहां से अनन्तर भव में पुनः असंज्ञी तिर्यंच में उत्पत्ति नहीं होती है । (२७-२८)
भवन व्यन्तर ज्योतिः सहस्रारान्त नाकिनः । आद्यषड्नरकोत्पन्न नारकाश्च समेऽप्यमी ॥२६॥ उत्पद्यमानाः पर्याप्त संज्ञि तिर्य गरेषु वै । पूरयन्ति भवानष्ट प्रत्येकं तत्र भावना ॥३०॥ युग्मं।
भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्कं तथा सहस्रार देवलोक तक के देव और पहले छः नरक में उत्पन्न हुए नारकी, ये सब पर्याप्त संज्ञी तिर्यंच और मनुष्य में उत्पन्न हो तो प्रत्येक आठ जन्म लेकर पूर्ण करते हैं । (२६-३०)
कश्चिद् भवनपत्यादि श्च्युत्वैकान्तरमुद्भवन । चतुरिं हि पर्याप्त संज्ञी तिर्यग्ररो भवेत् ॥३१॥ ततः स तिर्यग् मयो वा नाप्नुयानवमे भवे । । पूर्वोक्त भवनेशादि भावं तांदृक्स्वभावतः ॥३२॥
संज्ञि पर्याप्त तिर्यक्षु सप्तमक्षिति नारकाः ।। पूरयन्ति भवान् षड्येऽनुत्कृष्ट स्थिति शालिनः ॥३३॥ उत्कृष्ट स्थिति भुक्तास्तु सप्तम क्षिति नारकाः । तेषूत्कर्षाज्जायमानाः स्युश्चतुर्भव पूरकाः ॥३४॥
इसमें भावार्थ यह है कि कोई भवनपति आदि देव च्यवन कर यदि एकान्तर रूप में उत्पन्न होता हो तो चार बार पर्याप्त संज्ञी तिर्यंच अथवा मनुष्य होता है, फिर वहं तिर्यंच अथवा मनुष्य जन्म में पूर्वोक्त भवनपति आदि का जन्म नहीं प्राप्त कर सकता है क्योंकि इसका ऐसा स्वभाव है अनुत्कृष्ट अर्थात् जघन्य स्थिति वाला सातवें नरक का जीव संज्ञी पर्याप्त तिर्यंच में छः जन्म करता है । परन्तु जो उत्कृष्ट स्थिति वाला है वह तो चार जन्म ही करता है । (३१ से ३४) .' आनतादि स्वश्चतुष्क सर्वनैवेयकामराः ।
उत्पद्यमाना उत्कर्षान्नृषु षड्भव पूरकाः ॥३५॥