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अब इनका लघु अल्प बहुत्व कहते हैं- कम से कम नारकी जीव सातवें नरक में होते हैं और छठे से पहले तक के नरक में उत्तरोत्तर असंख्य गुणा हैं। जिसने सबसे उत्कृष्ट पाप किया हो वह संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य सातवें नरक में जाता है। यद्यपि इनकी संख्या बहुत अल्प है । इससे भी कम पाप किया हो वह छठे नरक में जाता है । पाप इससे कम होने पर पांचवे, चौथे आदि नरक में जाते हैं । इनकी संख्या उत्तरोत्तर बढती जाती है । (३० से ३२)
यह लघु अल्प बहुत्व द्वार है । (३३)। सर्वासु नारकाः स्तोकाः पूर्वोत्तरा परोद्भवाः । असंख्येय गुणास्तेभ्यो दक्षिणा शासमुद्भवाः ॥३३॥ पुष्पावकीर्ण नरकावासा ह्यल्पा दिशां त्रये ।। ये सन्ति तेऽपि प्रायेण संख्य योजन विस्तृताः ॥३४॥ दक्षिणास्यां च पुष्पावकीर्णका बहवः स्मृताः । प्रायस्ते सन्त्यसंख्येय योजनायत विस्तृताः ॥३५॥ किंच-भूना कृष्ण पाक्षिकाणां दक्षिणस्यां यदुद्भवः । दिक् त्रन्यापेक्षयै तस्यां भूयांसौ नारकास्ततः ॥३६॥
इति दिग़पेक्षयाल्पबहुता ॥३४॥ . अब इनके दिशा से अल्प बहुत्व के विषय में कहते हैं - सर्व दिशाओं से पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में कम नारकी जीव हैं । दक्षिण दिशा में इससे . असंख्य गुंणा हैं क्योंकि तीन दिशाओं में पुष्पावकीर्ण नरकवास कम हैं और जितने हैं वे भी विस्तार में संख्यात योजन हैं जबकि दक्षिण दिशा में ये नरकवास बहुत हैं और उनका विस्तार असंख्य योजन का है तथा दक्षिण दिशा में कृष्ण • पाक्षिक नारकी की उत्पत्ति बहुत है । इस कारण से तीन दिशाओं की अपेक्षा चौथी-दक्षिण दिशा में बहुत नारकी जीव हैं । (३२ से ३६) ।
यह चौंतीसवां द्वार है । (३४) वनस्पति ज्येष्ठ कायस्थिति मानं किलान्तरम् । एषां गरीयो विज्ञेयं लघु चान्तर्मुहूर्तकम् ॥३७॥
इत्यन्तरम् ॥३५॥ अब इनके अन्तर के सम्बन्ध में कहते हैं - नारकी में अंतर उत्कर्षतः