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तुल्या दिक्षु चतुसृषु विमानाः पंक्तिवर्तिनः । असंख्य योजन तताः पुष्वावकीर्णकाः पुनः ॥१४६॥ याम्योदीच्योरेव भूम्ना स्युः पूर्वापरयो स्तु न । उदक् ततोऽसंख्य गुणाः प्राची प्रत्यीच्यपेक्षया ॥१४७॥ भूना कृष्ण पाक्षिकाणां दक्षिणस्यां समुद्भवात् ।। दक्षिणस्यां समधिका उत्तरापेक्षया ततः ॥१४८॥
सौधर्म आदि चार देवलोक में पूर्व और पश्चिम दिशा में थोड़े देव है, उत्तर में इससे असंख्य गुना हैं और दक्षिण में इससे भी अधिक होते हैं। इसमें कहने का भावार्थ यह है कि असंख्य योजन के विस्तार वाले पंक्तिबद्ध विमान तो चारों दिशाओं में समान हैं परन्तु पुष्पावकीर्ण विमान दक्षिण और उत्तर में ही बहुत हैं, पूर्व पश्चिम में नहीं है। इसलिए पूर्व पश्चिम की अपेक्षा से उत्तर दक्षिण में असंख्यात गुणा कहा है तथा उत्तर से दक्षिण में कहा है, इसका कारण यह है कि दक्षिण दिशा में कृष्ण पाक्षिक देवों के विमानों इससे बहुत अधिक हैं। (१४४ से १४८)
तथाहुः प्रज्ञापनायाम्-"दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवादेवा सोहम्मे कप्पे पुरच्छिम पच्चच्छिमेणं, उत्तरेणं असंखोज्जा गुणा, दाहिणेणं विसेसा हि या। अत्र यद्यपि 'विविहा पुप्फ किन्ना तयन्तरे मुत्तु पुव्वदिसिं।' इति वचनात् प्राच्यां पुष्पावकीर्णका भावात् प्रतीच्यां च तनिषेधाभावात् प्राच्यपेक्षया प्रतीच्या देवा: अधिकः वक्तव्याः स्यु तथापि अत्र सूत्रे पूर्व पश्चिमावल्योः उभयतः सर्वापि दक्षिणोत्तर तयैव दिग्विवक्षितेति संभाव्यते इति वृद्धाः। यथा दक्षिणोत्तरार्ध लोकाधिपती सौधर्मेशानेन्द्रौ इत्यत्र पूर्व पश्चिमे- अपि दक्षिणोत्तरतयैव विवक्षिते। इति॥"
इस सम्बन्ध में प्रज्ञापना सूत्र में भी भावार्थ कहा है- दिशा के आश्रित कहें तो सौधर्म देवलोक में पूर्व पश्चिम दिशा में सर्व से कम देव हैं , उत्तर दिशा में इससे असंख्य गुणा हैं और दक्षिण दिशा में उत्तर से अधिक हैं। यहां पूर्व में पुष्पावकीर्ण के अभाव के कारण और पश्चिम में इसका निषेध किया नहीं है, इसलिए पूर्व की अपेक्षा से पश्चिम में अधिक देव कहना चाहिए था, परन्तु इस सूत्र में पूर्व श्रेणि और पश्चिम श्रेणी- ये दो श्रेणि कही हैं अतः सर्व दिशा दक्षिण उत्तर रूप में ही कही है, ऐसा समझ में आता है। जैसे कि सौधर्म और ईशान इन्द्र को दक्षिणार्ध तथा उत्तरार्ध का अधिपति कहा है। यहां दक्षिणार्ध और उत्तरार्द्ध में पूर्व पश्चिम दिशाओं की ही विवक्षा है।'