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पूर्वोत्तर पश्चिमासु ब्रह्म लोकेऽल्पकाः सुराः ।। ततश्चासंख्येय गुणा दक्षिणस्यां दिशि स्मृताः ॥१४६॥ याम्यां हि बह्वः प्रायस्तिर्यंचः कृष्ण पाक्षिकाः । उत्पद्यन्तेऽन्यासु शुक्ल पाक्षिकास्ते किलाल्पकाः ॥१५०॥
ब्रह्म देवलोक में पूर्व उत्तर और पश्चिम दिशा में देव कम हैं, परन्तु दक्षिण में इससे असंख्य गुणा हैं क्योंकि दक्षिण में प्रायः कृष्ण पाक्षिक की उत्पत्ति है और वे बहुत हैं और अन्य दिशाओं में शुक्ल पाक्षिक की उत्पत्ति हैं और वे अल्प होते हैं। (१४६-१५०)
एवं च लांतके शुक्रे सहस्रारेऽपि नाकिनः । भूयांसो दक्षिणास्यां स्युस्ति सृष्वन्यासु चाल्पकाः ॥१५१॥ आनतादिषु कल्पेषु ततश्चानुत्तरावधि । प्रायश्चतुर्दिशमपि समाना एव नाकि नः ॥१५२॥
लांतक, शुक्र और सहस्रार देवलोक में भी इसी तरह है, दक्षिण दिशा में बहुत देव हैं, शेष तीन दिशा में कम हैं। आनत से लेकर अन्तिम अनुत्तर विमान तक के. देवलोक में प्रायः चारों दिशाओं में देवों की संख्या समान है। (१५१-१५२)
तथाहुः प्रज्ञापनायाम्- तेणपरं बहुसमोववण्णगा समणा उसो । इति ॥
. इति दिगपेक्षया अल्प बहुता ॥३४॥ . प्रज्ञापना सूत्र में इस विषय में कहा है कि इसके बाद के देवलोक में देवों की उत्पत्ति संख्या प्रायः समान है।
यह दिशा अल्प बहुत्व द्वार है। (३४) जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त कालोऽनन्तोऽन्तरं गुरु । ज्येष्ठ कार्य स्थिति रूपः स च कालो वनस्पतेः ॥१५३॥
इति अन्तरम् ॥३५॥ इसके अन्तर के विषय में कहते हैं- देव का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का है व उत्कृष्ट अनंत काल का है, यह अनन्त काल उस वनस्पति की उत्कृष्ट कायस्थिति जितना समझना । (१५३)
यह अन्तर द्वार है। (३५)