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(५०५) ज्योतिषी देव- देवियों की कुल संख्या, एक प्रतर के अन्दर दो सौ छप्पन अंगुल लम्बाई वाले जितने सूचि रूप खण्ड होते हैं उतनी उनकी संख्या होती है। इस तरह प्रमाण अर्थात् संख्या का विषय समझना । अब इनका लघु अल्प बहुत्व कहते हैं। (११३-११४)
यह मान द्वार है । (३२) - स्तोकाः सर्वार्थ सिद्धस्था असंख्येय गुणास्ततः ।
शेषा अनुत्तरा देवास्ततः संख्य गुणाः क्रमात् ॥१५॥ ऊर्ध्वमध्याधः स्थिते स्युजवेयकत्रिक त्रये ।
अच्युते चारणे चैव प्राणते चानतेऽपि च ॥११६॥ युग्मं।
सर्वार्थ सिद्धस्थ देव सब से कम हैं । इससे शेष अनुत्तर विमान के देव असंख्य गुणा होते हैं और इससे संख्यात संख्यात गुणा अनुक्रम से ग्रैवेयक के ऊर्ध्वत्रिक मध्यत्रिक और अधोत्रिक होते हैं । फिर अच्युत देवलोक, चारण देवलोक, प्राणत देवलोक और आनंत देवलोक में रहे होते हैं। (११५-११६)
अधोऽधोगैवेयकादावनुत्तराद्यपेक्षया । भाव्या विमान बाहुल्याद्देवाः संख्य गुणाः क्रमात् ॥१७॥
एक के बाद एक नीचे प्रैवेयक आदि में अनुत्तर आदि की अपेक्षा से विमान बहुत होने से अनुक्रम से संख्यात संख्यात गुणा देव होते हैं। (११७)
समश्रेणि स्थयोर्यद्यप्यारणाच्युत कल्पयोः । विमानसंख्या तुल्यैव तथापि कृष्ण पाक्षिकाः ॥११८॥ उत्पद्यन्ते स्वभावेन दक्षिणस्यां हि भूरयः । शुक्लपाक्षिक जीवेभ्यो बहवश्च भवन्ति ते ॥११॥ तप्तोऽच्युतापेक्षया स्युनिर्जरा आरणेऽधिकाः । समश्रेणि स्थितावेव मन्येष्वपि विभाव्यताम् ॥१२०॥
समान श्रेणि में रहे आरण और अच्युत देवलोक में विमान संख्या यद्यपि समान ही है फिर भी कृष्ण पाक्षिक जीव स्वभाविक रूप में दक्षिण दिशा में बहुत उत्पन्न होते हैं और शुक्ल पाक्षिक जीव से इनकी संख्या अधिक है- इस कारण से अच्युत देवलोक की अपेक्षा से आरण देवलोक में बहुत देव होते हैं। समश्रेणि में रहे अन्य देवलोक में भी इसी तरह समझ लेना चाहिए । (११८ से १२०)