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(४६४) • दस भेद होते हैं। उसमें आठ अन्नादि मुंभक-अन्न आदि की वृद्धि करने वाले हैं।
एक प्रकार विद्या मुंभक देव है और एक प्रकार अव्यक्त जुंभक देव है । इस तरह कुल दस भेद होते हैं। अव्यक्त गँभक अर्थात् सामान्य रूप में सभी वस्तुओं की वृद्धि करने वाले होते हैं। (५१-५२)
विचित्र चित्रयमक वैताढय कांचनादिषु । वसन्ति शैलेषु दशाप्यमी पल्योपमायुषः ॥५३॥. नित्ये प्रभुदिताः क्रीडापराः सुरत सेविनः । स्वच्छन्दचारित्वादेते जृम्भन्त इति जृम्भकाः ॥५४॥
ये दस प्रकार के चित्र, विचित्र, यमक, समक, वेताढय और मेरु आदि पर्वतों पर निवास करने वाले हैं। इनका पल्योपम का आयुष्यं होता है । ये हमेशा प्रभुदित रहते हैं, क्रीडा करते रहते है और सुरत समागम में लीन रहते हैं। इनका स्वच्छंदाचार नित्य विजृम्भ होते-बढ़ते जाने से वे जृम्भक कहलाते हैं। (५३-५४).
क्रुद्धानेतांश्च यः पश्येत् सोऽयशोऽनर्थमाप्नुयात् ।। तुष्टान पश्यन् यशोविद्यां वित्ते वज्रमुनीन्द्रं वत् ॥५५॥
जब ये क्रोधातुर हों उस समय जिसको इनका दर्शन हो तो उसे अपयश और अनर्थ होता है परन्तु जब संतुष्ट हों उस समय इनका दर्शन हो तो वज्र मुनि को जो मिला था ऐसी विद्या और यश आदि की प्राप्ति होती है। (५५)
शापानुग्रहशीलत्वमेषां शक्तिश्च तादृशी । अयमर्थः पंचमांगे शते प्रोक्तश्चतुर्दशे ॥५६॥
इनमें शाप देने का और अनुग्रह करने का भी स्वभाव रहता है क्योंकि इनमें इन प्रकार की शक्ति है। ऐसा भावार्थ पांचवें अंग श्री भगवती सूत्र में चौदहवें शतक में कहा है। (५६)
शतं पंचोत्तरं भेदप्रभेदैय॑न्तरामराः । भवन्ति नाना क्रीडाभिः क्रीडन्तः काननादिषु ॥५७॥
बाग- बगीचे में विविध प्रकार की क्रीड़ा करने में बार-बार ही तत्पर रहने वाले ये व्यन्तर देव सब मिलाकर एक सौ पांच (१०५) प्रकार के होते हैं। (५७)
ज्योतिष्का पंच चन्द्रार्क ग्रह नक्षत्र तारकाः । द्विधा स्थिराश्चराश्चेति दशभेदा भवन्ति ते ॥५८॥