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(५००) यह अनंतराप्ति द्वार है। (१५) सिद्धयन्त्यनन्तर भवे एकस्मिन् समये त्वमी । उत्कर्षतः साष्टशतं विशेषस्त्वेष तत्र च ॥४॥
अब समयसिद्धि के विषय में कहते हैं- ये अनन्तर भव में एक समय में उत्कृष्ट एक सौ आठ सिद्ध होते हैं। (८४) .
भवनेशा व्यन्तराश्च सर्वे दशदशैव हि । . तद्देव्यः पंच पंचैव दश ज्योतिष्क निर्जराः ॥५॥ ज्योतिष्क देव्यश्चैकस्मिन् क्षणे सिद्धयन्ति विशंतिः।
वैमानिकाः साष्टशतं तद्देव्यो विंशतिः पुनः ॥८६॥ .. इति समयेसिद्धिः ॥१६॥
यह बात विशेषतः इस तरह से है, भवनपति और व्यन्तर में से दस-दस ही सिद्ध होते हैं, इनकी देवियां पांच-पांच ही सिद्ध होती हैं, ज्योतिष्क देवों में से दस सिद्ध होते हैं और उनकी देवियां बीस सिद्ध होती हैं। वैमानिक देव एक सौ आठ सिद्ध होते हैं और इनकी देवियां बीस सिद्ध होती हैं। (८५-८६) __ यह समयसिद्धि द्वार है। (१६)
लेश्याहार दिशा षट्कं न संहनन सम्भवः । कषाय संज्ञेन्द्रियाणि सर्वाण्येषां भवन्ति च ॥७॥
इति द्वारषट्कम् ॥१७ से २२॥ . इनकी छः लेश्या होती हैं। इनका छः दिशा में आहार होता है। संहनन संभव नहीं होता तथा कषाय संज्ञा और इन्द्रिय- सब पूर्ण रूप में होती हैं। (८७)
ये छः द्वार हैं । (१७ से २२) सर्वेऽप्येते संज्ञिनः स्युः पुंस्त्री वेदयुजः परम । देव्यः सुरेभ्यो द्वात्रिंशद् गुणा द्वात्रिंशताधिकाः ॥८॥
इति द्वारद्वयम् ॥२३-२४॥ ये सभी संज्ञी होते हैं। इनको पुरुष और स्त्री- ये दोनों वेद होते हैं। देवों से देवियों में बत्तीस गुण अधिक होते हैं। (८८)
ये दो द्वार हैं । (२३-२४)