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अंगुलासंख्येय भाग माना पर्याप्त प्रत्येक तरुत्कृष्टावगाहनातः सातिरेक योजन सहस्त्र मानायाः पर्याप्त तरुत्कृष्टावगाहनायाः विशेषाधिकत्वस्य असंगतत्वात् भगवती सूत्रेण सह विरोधाच्च । तथा च तद्ग्रंथः
पत्ते अ सरीर बादर वणस्सइ काइयस्स पजत्तगस्स जहण्णि आ ओगाहणा असंखेज गुणा।तस्यचेवअपज्जत्त गस्सउक्कोसिआओगाहणाअसंखिजगुणा।तस्स चेवपजत्तगस्स उक्कोसियाओगाहणाअसंखिज गुणा।इतिशतक १६ तृतीयोद्देशके। भावार्थस्तु यंत्रकात् ज्ञेयः॥
अत्र जीवभेदाः चतुश्चत्वारिंशत् । अवगाहना भेदाश्च त्रिचत्वारिंशदेव। अपर्याप्त बादरनिगोद जघन्यावगाहनाया अपर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिजघन्यावगाहनायाश्च मिथस्तुल्यत्वात्॥अतएव कोष्टकाः चतुश्चत्वारिंशत् अंकाःत्रिचत्वारिंशदेव ।पंचमैक चत्वारिंशयोः कोष्टयोदशकस्यैव सद्भावात् । इति ध्येयम् ॥ ..
. इति अंगमानम् ॥११॥
और श्री जिन वल्लभ सूरीश्वर जी स्वरचित "देहाल्पबहुतो द्वार" नामक ग्रन्थ में अपर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट अवगाहना करते हुए पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय की सविशेष अवगाहना कही है। वह विचार करने योग्य है। क्योंकि एक अंगुल के असंख्यवें भाग जितने अपर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट अवगाहना करते, हजार योजन से कुछ अधिक मान वाली पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट अवगाहना विशेष रूप में अधिक होना असंभावित है और इस तरह कहने से भगवती सूत्र के साथ भी विरोध आता है क्योंकि भगवती सूत्र में भी कहा है कि
पर्याप्त बादर प्रत्येक वनस्पतिकाय की जघन्य अवगाहना असंख्य गुना है, और वह करते ऐसे ही अपर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्य गुना होती है और इससे भी ऐसे ही पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्य गुना है । यह बात श्री भगवती सूत्र में उन्नीसवें शतक के तीसरे उद्देश में कही है । इसका भावार्थ इसके साथ दिये यंत्र पर से समझ लेना।
यंत्र में जीव के भेद चौवालीस हैं और अवगाहना के भेद तैंतालीस हैं । इसका कारण यह है कि अपर्याप्त बादर निगोद की जघन्य अवगाहना और अपर्याप्त प्रत्येक वनस्पति की जघन्य अवगाहना परस्पर तुल्य है और इस तरह होने से ही कोष्टक चौवालीस हैं और अंक से तैंतालीस हैं। पांचवें और इकतालीसवें कोष्ठक में दस का अंक ही है। इस तरह देहमान विषय का वर्णन किया है। (११)