________________
( ४५६ )
इति ज्ञानम् ॥२६॥
अब इनका ज्ञान कहते हैं- संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच में कई को दो ज्ञान होते हैं तथा कई दो अज्ञान युक्त होते हैं। गर्भज में कई को दो अथवा तीन ज्ञान होते हैं जबकि कई दो या तीन अज्ञान वाले भी होते हैं । (१७७)
यह ज्ञान द्वार है । (२६)
I
दर्शन द्वयमाद्यं स्यादुभयेषामपि स्फुटम् ।
अवधिज्ञानभाजां तु गर्भजानां त्रिदर्शनी ॥ १७८ ॥ इति दर्शनम् ॥२७॥
अब इनके दर्शन के विषय में कहते हैं- संमूर्छिम तथा गर्भज दोनों पंचेन्द्रिय को प्रथम दो दर्शन होते हैं । अवधि ज्ञान युक्त गर्भज तिर्यंच को तीन दर्शन होते हैं। (१७८)
यह दर्शन द्वार है (२७)
संमूर्छिमाना चत्वार उपयोगाः प्रकीर्तिताः । गर्भजानां तु चत्वारः षट् पंचौघान्नवापि ते ॥ १७६॥
यदेषां केवल ज्ञानं मुक्त्वा केवल दर्शनम् ।
.
ज्ञानं मनः पर्यवं च सर्वेऽन्ये सम्भवन्ति ते ॥ १८० ॥
इति उपयोगाः ॥२८॥ .
इनके उपयोग के विषय में कहते हैं- संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच के चार उपयोग कहे हैं परन्तु गर्भज को चार, पांच, छः और ओघ से नौ भी कहे हैं क्योंकि इनको केवल ज्ञान, केवल दर्शन और मनः पर्यवज्ञान- इनके अलावा शेष सभी उपयोग होते हैं। (१७६- १८० )
यह उपयोग द्वार है। (२८)
स्यादनाहारिता त्वेषामेक द्वि समयावधि |
ओज आदि स्त्रिधाहारः सचितादिरपि त्रिधा ॥ १८१ ॥ प्रथमं त्वोज आहारो लोभकावलिकौ ततः । अन्तरं द्वौ दिनौ ज्येष्ठं लघु चान्तर्मुहूर्त्तकम् ॥१८२॥ ज्येष्ठं चैतत्कावलिकाहारस्य स्मृतमन्तरम् । स्वाभाविकं त्रिपल्यायुर्युक्त तिर्यगपेक्षया ॥ १८३ ॥