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संमूर्छिम तथा गर्भज दोनों पंचेन्द्रिय तिर्यंच को सारे कषाय होते हैं । सर्व संज्ञायें होती हैं और समस्त इन्द्रियां होती हैं । संमूर्छिम असंज्ञी होता है जबकि गर्भज संज्ञी होता है। (१७२)
ये काय, संज्ञा, इन्द्रिय तथा संज्ञी बीसवें से तेइसवें द्वार तक हैं। (२० से २३)
संमूर्छिमेषु तिर्यक्षु स्त्री पुमांश्च न सम्भवेत् । केवलं क्लीववेदास्ते केवलज्ञानिभिर्मताः ॥१७३॥
अब इनके वेद के विषय में कहते हैं- संमूर्छिम तिर्यंचों में स्त्री अथवा पुरुष वेद नहीं होता, परन्तु वे नपुंसक वेदी ही होते हैं। इस तरह केवल ज्ञानियों ने कहा है। (१७३)
स्त्रियः पुमांसः क्लीवाश्च तिर्यंच गर्भजास्त्रिधा । पुंभ्यः स्त्रिस्त्रिभीरुपैरधिकास्त्रिगुणास्तथा ।।१७४॥
इति वेदाः ॥२४॥ गर्भज तिर्यंज को स्त्री, पुरुष और नपुंसक- ये तीनों वेद होते हैं । इसमें पुरुष से स्त्रियां तीन रूप अधिक तीन गुना होती हैं। (१७४) .:. यह वेद द्वार है । (२४) .. _ विकलेन्द्रियवत् दृष्टि द्वयं संमूर्छिमांगिनाम् ।
तिस्त्रोऽपि दृष्टयोऽन्येषां तत्र सम्यग्दृशो द्विधा ॥१७॥ के चिद्देशेन विरताः परे त्वविरताश्रयाः । अभावः सर्वविरतेस्तेषां भव स्वभावतः ॥१७६॥
- इति दृष्टिः ॥२५॥ - अब इनकी दृष्टि के विषय में कहते हैं- संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच को विकलेन्द्रिय के समान दो दृष्टि होती हैं, गर्भज को तीनों दृष्टि होती हैं। इसमें सम्यक् दृष्टि वाले दो प्रकार के होते हैं । कई देश विरति होते हैं, अन्य अविरति होते हैं। सर्व विरति कोई नहीं होता । (१७५-१७६)
यह दृष्टि द्वार है। (२५) संमूर्छिमाः स्युद्वर्यज्ञाना द्विज्ञाना अपि केचन । (द्वित्राज्ञाना गर्भजा द्वित्रज्ञाना अपि के चन ॥१७७॥)