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वाला और ज्ञान, धर्म, साधु तथा आचार्य आदि का निन्दक 'किल्विषिक' कहलाता है। (७६)
वर्तयेद्यस्तु नटवत् वेषमाजीविका कृते । बाह्योपचार चतुरः स आजीविक उच्यते ॥७७॥
आजीविका के लिये नृत्यकार के समान वेश धारण करे और बाह्य उपचार में चतुर हो वह आजीविक कहलाता है। (७७)
अभियोगः कार्मणादिस्तत्प्रयोक्ताभियोगिकः । द्रव्यानुयोग मंत्रादिः सद्विधा द्रव्य भावतः ॥७८॥
अभियोग अर्थात् कामण टुमण करने वाला हो वह अभियोगिक कहलाता है। जिसमें प्रयोग और मंत्र- यंत्र करने पड़ें वह अभियोग दो प्रकार का है - १द्रव्य से और २- भाव से। (७८)
तथोक्तम्दुविहो खलु अभियोगो दव्वे भावे य होइ नायव्वो।
दव्वं मि होइ जोगा विजामंता य भावं मि ॥७॥ .: . इति भगवती वृत्ति प्रथम शतक द्वितीयोद्देशके ॥ _ . इस सम्बन्ध में श्री भगवती सूत्र के प्रथम शतक के दूसरे उद्देश की वृत्ति में कहा है कि. द्रव्य और भाव से-इस तरह दो प्रकार का अभियोग है। जिसमें प्रयोग करने पड़ते हैं वह द्रव्य अभियोग है और जिसमें विद्या-मन्त्र की साधना • करनी पड़े वह भाव अभियोग है। (७६)
व्यवहारेण चारित्रवन्तोऽप्येतेऽचरित्रिणः । .. - लभन्तइदशी: संज्ञा दोषैरे तयैथों दितैः ॥५०॥ . ..इस लोक व्यवहार में चारित्र वाला होने पर भी अचारित्रवान कहलाता है। उनको ऐसा उपनाम मिलने का कारण उनका यथोदित दोष है। (८०)
प्रयान्ति नरके वेव नियमादध चक्रिणः । तथैव च गति या प्रत्यर्ध चक्रिणामपि ॥१॥
आधा चक्रवती वासुदेव नियम रूप में नरक में ही जाता है और प्रति वासुदेव की भी गति (नरक) जानना चाहिए । (८१)