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चक्रिणो येऽत्यक्त राज्याः प्रयान्ति नरकेषु ते । सप्तस्वपि यथा कर्मोत्कृष्टायुस्कतया परम् ॥२॥
परन्तु जिसने राज्य का त्याग न किया हो वह चक्रवर्ती अपने कमों के अनुसार उत्कृष्ट आयु वाले सातवें नरक में जाता है। (८२)
यथोक्तं भगवती शतक १२ नवमोद्देशक वृत्तौ चक्रवर्त्तित्वान्तरनिरू पणाधिकारे-"जहणेणंसातिरेगं सागरोवमं ति कथम्।अपरित्यक्तसंगा: चक्रवत्तिनो नरक पृथिवीषु उत्पद्यन्ते तासु च यथास्थं उत्कृष्ट स्थितयो भवन्ति। ततश्च नरदेवो मृतः प्रथम पृथिव्यामुत्पन्नः तत्र च उत्कृष्टां स्थिति सागरोपम प्रमाणाम् अनुभूय नर देवो जायते इत्येवं सागरोपमम् ॥ सातिरेकत्वं च नरदेवभवे चक्र रत्नोत्पत्तेः अर्वाचीन कालेन दृष्टव्यमिति ॥"
___ इस सम्बन्ध में श्री भगवती सूत्र के बारहवें शतक के नौंवे उद्देश में चक्रवर्ती रूप के आन्तरा के अधिकार में इस तरह कहा है कि- 'जघन्य रूप में सागरोपम से कुछ अधिक होता है' वह किस तरह ? इसका उत्तर- 'जिसने राज्य का त्याग नहीं किया वह चक्रवर्ती नरक में जाता है और वहां अपने कर्म के अनुसार उत्कृष्ट काल तक स्थित होकर रहता है' इस तरह है, इसलिए नरदेव अर्थात चक्रवर्ती मरकर पहले नरक में उत्पन्न होकर वहां उत्कृष्ट सागरोपम प्रमाण वाली स्थिति भोगकर पुनः चक्रवर्ती होता है। इसलिए सागरोपम की अन्तरा सार्थकता तो सिद्ध हुई। और 'अधिक' जो कहा है वह उस चक्रवती के जन्म में चक्ररत्न की उत्पत्ति से पहले का जो काल है उस काल को लक्ष्य में रखकर कहा है।'
'श्री हरिभद्र सूरिकृत दश वैकालिक वृत्तौ हैमवीर चरित्रे नवपद प्रकरण वृत्तौ च चक्रिणः सप्तम्यामेव अत्यक्त राज्या यान्ति इति उक्तम् ॥'
श्री हरिभद्र सूरि जी रचित दशवैकालिक सूत्र की वृत्ति में; श्री हेमाचार्य रचित वीर चरित्र के अन्दर तथा 'नवपद प्रकरण' की वृत्ति में 'जिसने राज्य नहीं छोड़ा वह चक्री सातवें नरक में ही जाता है।' इस तरह कहा है।
त्यक्त राज्यास्तु ये सार्व भौमास्ते यान्ति ता विषम् । मुक्तिं वाथ सीरिणोऽपि ध्रुवं स्वर्मुक्ति गामिनः ॥३॥ .
इति गतिः ॥१३॥