________________
(४८५)
दक्षिणोत्तरयोः स्तोकाः स्युर्मनुष्या मिथः समाः । प्राच्यां ततः संख्य गुणाः प्रतीच्यां च ततोऽधिकाः ॥१६॥ भरतैरवतादीनि क्षेत्राण्यल्पान्यपागुदम् । ततः संख्य गुणानि स्युः पूर्व पश्चिमयोर्दिशोः ॥२०॥ किन्त्वधोलौकिक ग्रामेष्वनल्पाः स्युनरा यतः । ततः प्रतीच्यामधिका मनुष्याः प्राच्यपेक्षया ॥१२१॥
इति दिगपेक्षयाल्पबहुता ॥३४॥ अब इनकी दिगपेक्षी अल्प-बहुता कहते हैं । सबसे अल्प मनुष्य दक्षिण और उत्तर में हैं और इन दोनों दिशाओं में समान है। पूर्व दिशा में इससे संख्यात गुणा हैं और इससे अधिक पश्चिम दिशा में हैं। दक्षिण और उत्तर में भरत, ऐरावत आदि क्षेत्रों में अल्प बस्ती है और पूर्व व पश्चिम में इससे संख्य गुणा बस्ती है। परन्तु अधोलोक के गांवों में बहुत मनुष्य होते हैं, इसलिए पूर्व दिशा की अपेक्षा पश्चिम दिशा में विशेष मनुष्य होते हैं। (११६-१२१)
यह दिशा अनुसार अल्प बहुत्व द्वार है। (३४) अन्तर्मुहूर्तमल्पिष्टं मनुष्याणां महान्तरम् । कालोऽनन्तः स चोत्कृष्टा कायस्थितिवनस्पतेः ॥१२२॥ चक्रित्वे चान्तरं प्रोक्तं साधिकाब्धिमितं लघु । ज्येष्ठं च पुद्गल परावर्तार्ध पंचमांगके ॥१२३॥ . . इत्यन्तरम् ॥३५॥ ..
अब इनका अन्तर कहते हैं-मनुष्य में जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का है तथा उत्कृष्ट अन्तर अनंत काल का है, और वह वनस्पति की उत्कृष्ट कायस्थिति के समान है । चक्रीवत रूप में जघन्य अन्तर एक सागरोपम से कुछ ही अधिक है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परावर्तन का कहा है। (१२२-१२३)
यह अन्तर द्वार है । (३५) नृणामिति व्यतिकरा विवृता मयैवम् । सम्यग् विविच्य समयात् स्वगुरु प्रसत्या ॥ पापणादिव कणाः कलमौक्तिकानाम् । दीपत्विषाप्त वणिजा मणि जाति वेत्रा ॥१२४॥