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ये छः द्वारों का वर्णन है । (१७ से २२)
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सद्भावाद्वयक्त संज्ञानामेते संज्ञितया मताः ।
दीर्घकालिक्यादि कानामपि सत्त्वात्तथैव ते ॥ १०८ ॥ इति संज्ञिता ॥ २३ ॥
अब इनकी संज्ञा के विषय में कहते हैं- इन मनुष्यों को सर्व संज्ञा व्यक्त होने से वे 'संज्ञित' कहलाते हैं तथा इनको 'दीर्घकालिकी' आदि संज्ञायें भी होती हैं, इसलिए वे 'संज्ञित' कहलाते हैं । (१०८)
यह संज्ञा द्वार है । (२३)
एतेषु भवतः पुंस्त्री वेदावसंख्य जीविषु । पुंभिस्तुल्याः स्त्रियश्चैषु स्युर्युग्मित्वेन सर्वदा ॥१०६ ॥
अब वेद के विषय में कहते हैं- इन गर्भज मनुष्यों में जो असंख्य आयु वाले होते हैं उनको पुरुषवेद और स्त्रीवेद- ये दो वेद होते हैं और ये हमेशा युग्म होने से स्त्री और पुरुषों की संख्या समान होती है। (१०६)
पुंस्त्री क्लीवास्त्रिधान्ये स्युस्तत्रपुंभ्यः स्त्रियो मताः । सप्तविंशत्यतिरिक्ताः सप्तविंशति संगुणाः ॥११०॥
तथा इसमें जो संख्यात आयुष्य वाले हैं वे स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीन जाति के हैं। इसमें स्त्रियां पुरुषों से सत्ताईस गुणा से उपरांत सत्ताईस हैं। (११० ) "गर्भजा क्लीवास्तु पुमाकार भाजः पुंसु स्त्रयाकार भाजस्तु स्त्रीषु
गण्यन्ते इति वृद्धवादः ॥"
इति वेदाः ॥२४॥
और वृद्ध वादियों का कहना है कि- 'नपुंसकों में जो पुरुषाकार वाले हों
वे पुरुषों में गिने जाते हैं और जो स्त्री आकार वाली हो वह स्त्रियों में गिनी जाती
है।'
यह वेद द्वार है। (२४)
तिस्रो दृशो ज्ञानाज्ञान दर्शनान्यखिलान्यपि ।
द्वादशेत्युपयोगाः स्युस्त्रि धौजः प्रमुखा हृतिः ॥ १११॥
अब सात द्वारों का वर्णन करते हैं- इन गर्भज मनुष्य को दृष्टियां तीन होती