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(४५८) अब इनके मान-माप के विषय में कहते हैं- प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही असंख्यात श्रेणि में जितने आकाश प्रदेश हैं उतने खेचर तिर्यंच हैं। स्थलचर और जलचर भी उतने ही हैं, परन्तु ये अनुक्रम से संख्यात गुणा अधिक हैं क्योंकि यह जो प्रतर का असंख्यातवां भाग कहा है, इस सिद्धान्त में अनुक्रम से विशेष से विशेष बड़ा कहा गया है। (१८६-१८८)
षट पंचाशांगुलशतद्वयमानानि निश्चितम् । यावन्ति सूचिखंडानि स्युरेक प्रतरे स्फुटम् ॥१८६॥ तावज्ज्योतिष्कदेवेभ्यः स्युः संख्येयमुणाः क्रमात् । तिर्यक् पंचेन्द्रियाः षंढा नभः स्थलाम्बुचारिणः ॥१६०॥ (युग्म।) . एतत्संमूर्छि म गर्भोत्थानां समुदितं खलु । क्लीवानां मानमाभाव्यं श्रुते पृथगनुक्तितः ॥१६॥
इति मानम् ॥३२॥ एक प्रतर के अन्दर दो सौ छप्पन अंगुल प्रमाण जितने सूची खंड हों उतने ज्योतिष्क देवों के द्वारा अनुक्रम से संख्यात गुणा नपुंसक खेचर, स्थल और जलचर होते हैं । यह मान नपुंसक संमूर्छिम और गर्भज दोनों का एकत्र-मिला समझना। सिद्धान्त में भी दोनों का एक ही कहा है, अलग नहीं कहा । (१८६ से १६१)
यह मान द्वार है । (३२) एष्वल्पाः खचरास्तेभ्यः संख्यना खचरस्त्रियः । ताभ्यः स्थलचरास्तेभ्यः संख्यनाः स्युस्तदंगनाः ॥१६२॥ ताभ्यो जलचरास्तेभ्यो जलचर्यस्ततः क्रमात् । .. नपुंसकाः संख्यगुणाः नभः स्थलाम्बुचारिणः ॥१६३॥
एते च संमूर्छिम युक्ता इति ज्ञेयम् ॥
___ इति लघ्व्यल्प बहुता ॥३३॥ अब इनका लघु अल्प बहुत्व विषय कहते हैं- पंचेन्द्रिय तिर्यंच में सबसे थोड़े खेचर होते हैं । इससे संख्य गुणा खेचरी होती हैं । इससे संख्य गुणा स्थलचर होते हैं और इससे भी संख्य गुणा स्थलचरी होती हैं। स्थलचरी से अनुक्रम से संख्यसंख्य गुणा जलचर, जलचरी, नपुंसक खेचरी, नपुंसक स्थलचर और नपुंसक जलचर हैं। ये तीनों नपुंसक संमूर्छिम नपुंसक समझना। (१६२-१६३)