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सातवां सर्ग संमूर्छिमा गर्भजाश्च द्विविधा मनुजा अपि । वक्ष्ये संक्षेपतस्तत्र प्रथमं प्रथमानिह ॥१॥
अब सातवां सर्ग आरम्भ होता है । मनुष्य भी दो प्रकार का है, १- संमूर्छिम और २- गर्भजा उसमें प्रथम संमूर्छिम का संक्षिप्त में वर्णन करता हूँ। (१)
अन्तर्वीपेषु षट पंचाशत्यथो कर्मभूमिषु । पंचाधिकासु दशसु त्रिंशत्यकर्मभूमिषु ॥२॥ पुरीषे च प्रश्रवणे श्लेष्मसिंघाणयोरपि । वान्तेपित्ते शेणिते च शुक्रे मृत कलेवरे ॥३॥ पूये स्त्रीपुंस संयोगे शुक्रपुद्गल विच्युतौ । पुरनिर्गमने सर्वेष्वपवित्र स्थलेषु च ॥४॥ स्युर्गर्भज. मनुष्याणां सम्बन्धिष्वेषु वस्तुषु । संमूर्छिम नराः सैकं शतं ते क्षेत्र भेदतः ॥५॥कलापकम्।
... इति भेदाः ॥? अब इसमें संमूर्छिम मनुष्यं के भेद कहते हैं- १- छप्पन अन्तर्वीप के अन्दर, २- पंद्रह कर्म भूमियों में, ३- तीस अकर्म भूमियों में, ४- विष्टा में, ५- मूत्र में, ६- श्लेष्म में, ७- कफ-बलगम में, ८- वमन में, ६- पित्त में, १०- खून में, .११- वीर्य में, १२- मृत कलेवर में, १३- पीब में, १४- स्त्री पुरुष के संयोग में, १५- शुक्रस्राव में, १६- नगर की गटर में तथा १७- सर्व प्रकार के अपवित्र स्थानों में। इस तरह गर्भज मनुष्यों के सम्बन्ध वाली सर्व वस्तुओं में होती है । इसके क्षेत्र के कारण से एक सौ एक भेद होते हैं। (२-५)
यह भेद प्रथम द्वार है (१) स्थानमेषां द्विपाथोधि सार्धद्वीप द्वयावधि । स्थानोत्पाद समुद्घातैः लोकासंख्यांशगा अमी ॥६॥
इति स्थानम् ॥२॥ इस मनुष्य का स्थान दो समुद्र और अढाई द्वीप तक में है। स्व स्थान उत्पाद और समुद्घात को लेकर ये इस लोक के असंख्यवें भाग में रहते हैं । (६)
यह स्थान द्वार है । (२)