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भुजोरः परिसर्पत्वात् परिसर्पा अपि द्विधा । तत्रोरः परिसर्पाश्च चतुर्धा दर्शिता जिनैः ॥ ७८ ॥ अह्योऽजगरा आसालिका महोरगा इति । अह्यो द्विविधा दर्वीकरा मुकुलिनस्तथा ॥७६॥
अब स्थलचर के दूसरे भेद परिसर्पक के विषय में कहते हैं- परिसर्पक के दो भेद हैं; १- भुजा से चलने वाले और २- पेट से चलने वाले। पेट से चलने वाले चार प्रकार के जिनेश्वर ने कहे हैं। सर्प, अजगर, आसालिका और महोरग । इनमें भी सर्प दो प्रकार होते हैं- दर्वीकर और मुकुली । ( ७८-७६)
दर्वीकरा फणभृतो या देहावयवाकृतिः । फणाभावो चित्ता सा स्यात् मुकुलं तद्युताः परे ॥८०॥
जिसकी देहावयव की आकृति फण वाली हो वह दर्वीकर, दर्वी- फण को करने वाला; और जिसकी देहावयव की आकृति मुकुल अर्थात् फण का अभाव हो वह मुकुली नामक सर्प होता है। (८०)
दर्वीकरा बहुविधा दृष्ट दृष्टा जगन्त्रयैः । आशीविषा दृष्टिविषा उग्रभोग विषा अपि ॥८१॥
लालाविषास्त्वग्विषाश्च श्वासोच्छ्वासविषा अपि । कृष्णसर्पाः स्वेदसर्पाः काकोदरादयोऽपि च ॥८२॥ युग्मं ।
दर्वीकर अर्थात् फणधर सर्प बहुत प्रकार के होते हैं। आशीविष सर्प, दृष्टिविष सर्प, उग्रविष सर्प, भोगविष सर्प, लालविष सर्प, त्वग्विष सर्प, श्वासोच्छ्वास विष सर्प, कृष्ण सर्प, स्वेद सर्प, काकोदर आदि नाना प्रकार के सर्प होते हैं। (८१-८२)
तत्र च ....... आशीर्दष्ट्रा विषं तस्यां येषामाशी विषाहिते । जम्बूद्वीपमितं देहं विषसात्कर्त्तुमीश्वराः ॥ ८३ ॥
शक्ते विषय एवायं भूतं भवति भाविनो । ताद्रक् शरीरासम्पत्त्या पंचमांगेऽर्थतो ह्यदः ॥ ८४ ॥
आशी अर्थात् दाढ़ में जिसको विष हो वह आशीविष सर्प कहलाता है। इसमें जम्बूद्वीप प्रमाण शरीर को भी विषमय करने का सामर्थ्य होता है। यह तो केवल उसकी शक्ति बताने के लिये कहा है परन्तु इतना बड़ा शरीर नहीं होता,