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यहां संख्यात आयुष्य वाले जन्म की अपेक्षा से सात जन्म और दोनों को अपेक्षा से आठ जन्म करता है। यह समझना ।
पूर्व कोटयधिकायुस्तु तिर्यक् सोऽसंख्य जीवितः। तस्य देवगतित्वेन मृत्वा तिर्यक्षु नोद्भवः॥१३४॥
जो तिर्यंच का आयुष्य पूर्व कोटि से अधिक हो वह असंख्य आयुष्य वाला कहलाता है। उसकी तो देवगति होने से वह मृत्यु के बाद तिर्यंच में उत्पन्न नहीं होता है। (१३४)
अष्ट संवत्सरोत्कृष्टा जघन्यान्तर्मुहूर्तिकी । गर्भ स्थिति स्तिरां स्यात् प्रसवो वा ततो मृतिः ।१३५॥ । तिर्यंच की गर्भ स्थिति उत्कृष्टत आठ संवतसर हो और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की हो, उसके बाद उसका जन्म हो अथवा उसकी मृत्यु होती है। (१३५) :
संख्याताब्दाधिकं वार्धिसहस्रामोघतो भवेत् । पंचेन्द्रिय तया कायस्थितिरुत्कर्षतः किल ॥१३६॥
ओघ से बोलते इन सबकी पंचेन्द्रिय रूप कायस्थिति उत्कृष्टतः एक हजार सागरोपम के संख्यात वर्ष जितनी होती है । (१३७)
पर्याप्त पंचाक्षतया कायस्थितिसरीयसी । शतपृथक्त्वमब्धीनां जघन्यान्तर्मुहूर्तकम् ॥१३७॥
इति काय स्थितिः ॥ और पर्याप्त पंचेन्द्रिय रूप में इनकी कायस्थिति उत्कृष्ट पृथकत्व सौ सागरोपम की होती है और जघन्य से अन्तर्मुहूर्त होती है। (१३७)
यह कायस्थिति द्वार है। (८) देहा स्त्रयस्तैजसश्च कार्मणौदारिकाविति । सांमूर्छाना युग्मिनां च तेऽन्येषां वैक्रियां चिताः ॥१३८॥
इति देहाः ॥६॥ . - इनकी देह के विषय में कहते हैं- संमूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय और युगालियों के तीन शरीर- तैजस, कार्मण और औदारिक होते हैं । गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय के ये तीन और चौथा वैक्रिय- इस तरह चार शरीर होते हैं। (१३८)