________________
(४४७)
मृत्वामृत्वाऽसकृत्संमूर्छि मस्तिर्यग् भवेद्यदि । तदासप्त भवान यावत् पूर्व कोटीमित स्थितीन् ॥१२८॥ यद्यष्ट मे भवेष्येष तिर्यग् भवमवाप्नुयात् । . तदाऽसंख्यायुष्क तिर्यग्गर्भजः स्यात्ततसुरः॥१२६॥
अब कायस्थिति का स्वरूप कहते हैं- इस पंचेन्द्रिय तिर्यंच में जो संमूर्छिम है उनकी कायस्थिति सात पूर्व कोटि की है। इस तरह बार-बार मरकर जो उसी संमूर्छिम तिर्यंच में उत्पन्न होते हैं तो पूर्व कोटी प्रमाण काय स्थिति वाला यावत् सात जन्म तक होते हैं और यदि आठवें जन्म में तिर्यंच गति में उत्पन्न होता है तो वह असंख्यात वर्ष की स्थिति वाला गर्भज तिर्यंच होता है और उसके बाद देवता होता है। (१२७ से १२६) . . .
कोटयः सप्त पूर्वाणां पल्योपमत्रयान्विताः । कायस्थितिर्गर्भजानां तिरश्चां तत्र भावना ॥१३०॥ संख्ये यायुर्गर्भजेषु तिर्यसूत्पद्यतेऽसुमान् । उत्कर्षेण सप्तवारान् पूर्वैक कोटि जीविषु ॥१३१॥ अष्टम्या यदि बेलायां तिर्यगंभवमवाप्नुयात् ।
असंख्यासुस्तदा स्यात्तस्थितिः पल्यत्रयं गुरु ॥१३२॥ ‘और इस वर्ग में गर्भज यदि है तो उसकी कायस्थिति तीन पल्योपम और सात पर्व कोटि की है । वह इस प्रकार-एक कोटि जीने वाला, संख्यात आयुष्य वाला गर्भज तिर्यंच में प्राणी उत्कृष्ट सात बार उत्पन्न होता है और यदि आठवीं बार भी तिर्यंच का जन्म प्राप्त करे तो वहां असंख्य आयुष्य वाला होता है और इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की होती है। (१३० से १३२) . अतएव श्रुतेऽप्युक्तम्
....पंचिंदिय काइ मइगओ उक्कोसं जीवो उ संवसे । .. सत्तट्ठभवग्गहणे समयं गोयम मा पमाए ॥१३३॥
अत्र संख्यातायुर्भवापेक्षया सप्त उभयापेक्षया तु अष्टौ इति ॥
हे गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि में गया प्राणी उत्कृष्टतः सात- आठ जन्म लेता है, इसलिए एक समय के प्रमाद में नहीं रहना चाहिए । (१३३)