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(४४१) हो जाता है और इसकी मोटाई भी प्रमाण के अनुसार बढ़ जाती है । वह ज्ञान रहित, संज्ञा रहित और मिथ्या दृष्टि वाला होता है। वह उत्पन्न होते ही अन्तर्मुहूर्त के अन्दर मर जाता है और मृत्यु के बाद उस स्थान पर उसके शरीर सदृश खड़ा हो जाता है । वह खड़ा होकर मानो एक भयंकर क्षुघातुर राक्षसी हो- इस तरह वह सेना तथा नगर को तुरन्त निगल जाता है। (८६ से ६२)
उक्तं जीव समासे तु स्युरेते द्वीन्द्रिया इति ।
शरीरोत्कर्ष साधाद्वेद तत्त्वं तु केवली ॥६३॥
इसको जीव समास में तो शरीर के उत्कर्ष के साधर्म्य के कारण द्वीन्द्रिय कहा है। तत्त्व तो केवली भगवन्त जानें। (६३)
महोरगा बहुविधा के चिदंगुल देहकाः । तत्पृथक्त्वांगकाः केचिद्वितस्ति तनवः परे ॥६४॥ एवं रनि कुक्षि चापैर्यो जनै स्तच्छ तैरपि । पृथकत्व वृद्धया यावत्ते सहस्रयोजनांगकाः ॥६५॥
चौथे प्रकार का सर्प महोरग नामक होता है । इसके अनेक प्रकार हैं । कोई तो अंगुल के समान होता है, कोई पृथकत्व अंगुल सदृश होता है, कोई बेंत के समान, कोई हाथ के समान, कोई कुक्षि के समान, कोई धनुष्य के समान, योजन के समान, सौ योजन के समान होता है और आखिर हजार योजन के समान भी होता है। (६४-६५).
स्थले जलेऽपि विचरन्त्येते स्थलोद्भवा अपि । · नरक्षेत्रे न सन्त्येते बाह्य द्वीप समुद्रगाः ॥६६॥
... इति उरः परिसर्पाः ॥ - इसकी उत्पत्ति स्थल-जमीन पर होती है परन्तु स्थल और जल दोनों में विचरण होता है। इसकी मनुष्य क्षेत्र में उत्पत्ति नहीं होती परन्तु बाह्य द्वीप समुद्रों में होती है। (६६) .
इतना उर परिसर्प-पेट से चलने वाले स्थलचर हैं। वक्ष्ये भुजपरिसास्ते त्वनेकविधाः स्मृताः । नकुला सरटा गोधा ब्राह्मणी गृह गोधिकाः ॥१७॥