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वायुकाय के जीव पूर्व दिशा में सब से अल्प हैं और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में अनुक्रम से अधिक से अधिक होते जाते हैं। जहां खाली विभाग होगा वहां वायुकाय जीव विशेष प्रकार से होगा, यह स्वाभाविक है और जहां घनतामोटापन विशेष होगा वहां यह अल्प होता है, यह स्पष्ट है। यह पहले भी कहा है कि 'खातपूरित' न्याय की गिनती से यद्यपि पश्चिम दिशा की पृथ्वी अधिक होती है फिर भी वहां अधोग्राम की भूमि नीची होने से खाली जगह वास्तविक रूप में बहुत ही रहती है, इससे वहां वायुकाय के जीव भी बहुत होते हैं। (३५१ से ३५३)
वनानामल्प बहुता भाव्याप्कायिक वबुधैः । तरूणां ह्यल्पबहुता जलाल्पबहुतानुगा ॥३५४॥ सामान्यतोऽपि जीवानामल्पता बहुतापि च । वनाल्प बहुतापेक्षा ह्यनन्ता एत एव यत् ॥३५॥ ।
इति दिगपेक्षयाल्प बहुता ॥३४॥ वनस्पतिकाय के जीवों का अल्प बहुत्व अप्काय के जीवों के अनुसार समझना क्योंकि वनस्पतिकाय सर्वत्र जल के अनुसार होता है । सामान्य रूप में भी जीवों का अल्प अधिकत्व वनस्पतिकाय के जीव के अल्प अधिकत्व का पूर्व कहे अनुसार आधार रखता है क्योंकि अकेला वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त है। (३५४-३५५)
इस तरह दिग् से अल्प बहुत्व पूर्ण हुआ (३४) कायस्थितिय सूक्ष्माणां प्रागुक्ता तन्मितं मतम् । सामान्यतो बादराणां बादरत्वे किलान्तरम् ॥३५६॥
सूक्ष्म का पूर्व कथित कायस्थिति के समान ही सामान्यतः बादर के बादरत्व में अन्तर होता है। (३५६)
स्थूलक्ष्माम्भोग्निपवन प्रत्येक द्रुषु चान्तरम् । अनन्त कालो ज्येष्टं स्याल्लघु चान्तर्मुहूर्त्तकम् ॥३५७॥ .. कालं निगोदेषु यत्तेऽनन्तं चान्तर्मुहूर्त्तकम् । स्थित्वा स्थूलक्ष्मादि भावं पुनः केचिदवाप्नुयुः ॥३५८॥
बादर पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय और प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों में उत्कष्ट अन्तर अनन्त काल का है और जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का है