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उपपत्तिश्च अत्रप्रतीच्यां गौतम द्वीप स्थाने वारामभावतः । सर्वस्तोका जिनैरुक्ता युक्तमेवाम्बुकायिका ॥३४६॥ पूर्वस्यां गौतम द्वीपा भावाद्विशेषतोऽधिकाः । . दक्षिणस्यां चन्द्र सूर्य द्वीपा भावात्ततोऽधिकाः ॥३४७॥ उदिच्यां मानससरः सद्भावात्सर्वतोऽधिकाः ।
अस्ति ह्यस्यां तदसंख्ययोजनायतविस्तृतम् ॥३४८॥
इसका कारण इस तरह है- पश्चिम दिशा में गौतम द्वीप का स्थान होने से उस जगह में जल.का अभाव होने से वहां अप्काय के जीव थोड़े होते हैं, ऐसा जिनेश्वर ने कहा है । यह बात निश्चय है और पूर्व में गौतम द्वीप नहीं है अतः वहां जल अधिक होने से जीव भी अधिक बढ़ जाते हैं तथा दक्षिण दिशा में सूर्य चन्द्र द्वीप न होने से वहां जल का प्रमाण बढ़ने से वहां जीव विशेष अधिक होते हैं, वैसे ही उत्तर दिशा में मानस सरोवर आया है अतः जल की बहत अधिकता होने से. अपकाय के जीव वहां सर्व से अधिक होते हैं क्योंकि मानस सरोवर का विस्तार असंख्य योजनों में है। (३४६-३४८) : याम्युदीच्योर्वहिकायाः स्तोकाः प्रायो मिथः समाः।
अग्न्यारंभक बाहुल्यात्.प्राच्या संख्यगुणाधिकाः ॥३४६॥ ... तनः प्रतीच्यामधिका वह्नयाघारंभकारिणाम् ।
. ग्रामेष्वधोलौकिकेषु बाहुल्याद्धरणीस्पृशाम् ॥३५०॥ • अग्निकाय के जीव दक्षिण और उत्तर दिशा में थोड़े हैं और दोनों दिशाओं में समान हैं । पूर्व में अग्नि का आरम्भ विशेष होने से संख्य गणा विशेष हैं और पश्चिम दिशा में इससे अधिक होते हैं, क्योंकि अधोग्राम में अग्नि आदिक आरम्भ वाले प्राणी अधिक होते हैं । (३४६-३५०)
पूर्वस्यां मरुतः स्तोकास्ततोऽधिकाधिका मताः । प्रतीच्यामुत्तरस्यां च दक्षिणस्यां यथाक्रमम् ॥३५१॥ यस्यां स्यात् शुषिरं भूरि तस्यां स्युर्भूरयोऽनिलाः। घन प्राचुर्ये च तेऽल्पास्तच्च प्रागेव भावितम् ॥३५२॥ स्युर्यदपि खातपूरित युक्त्या प्रत्यग् धराधिका तदपि । प्रत्यगधोग्राम भुवां निम्नत्वाद्वास्तवी शुषिर बहुता ॥३५३॥