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पर्याप्तानां गुणस्थानमेतेषामुक्त मादिमम । अपर्याप्तामा तदाद्यं द्वितीयमपि जातुचित् ॥५१॥
__ इति गुणाः ॥३०॥ इसके गुण स्थान कहते हैं- विकलेन्द्रिय जीवों में जो पर्याप्त होते हैं उनको प्रथम गुण स्थान होता है और जो अपर्याप्त होते हैं उनको पहला और क्वचित् दूसरा गुण स्थान भी होता है। (५१)
यह गुण द्वार है । (३०)
औदारिकः काय योग तन्मिश्रः कार्मणस्तथा । वाग सत्यामृषा चेति योगाश्चत्वार एवमी ॥५२॥ .
- इति योगः ॥३१॥ योग के विषय में कहते हैं- विकलेन्द्रिय जीवों को चार योग होते हैं१. औदारिक काय योग, २. औदारिक मिश्रयोग, ३. कार्मण काय योग और ४. असत्य मृषा वचन योग । (५२) .
यह योग द्वार है। (३१) एकस्मिन् प्रतरे सूच्योऽङ्गुल संख्यांशकायति । तावन्तो द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः पर्याप्तकाः पृथक् ॥५३॥ एकस्मिन् प्रतरे सूच्योङ्गलासंख्यांशकायति । .
अपर्याप्ता द्वित्रिचतुरक्षास्तावन्त ईरिता ॥५४॥ .
इसके मान अर्थात् प्रमाण के विषय में कहते हैं- एक अंगुल के संख्यातवें भाग जितनी लम्बाई वाले एक प्रतर के अन्दर जितनी सूचियां होती हैं उतने अलग-अलग पर्याप्त द्वीन्द्रिय, जीव त्रीन्द्रिय जीव और चतुरिन्द्रय जीव होते हैं और एक अंगुल के.असंख्यातवें भाग जितनी लम्बाई वाले एक प्रतर के अन्दर जितनी सूचियां हों उतने अलग-अलग अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रय जीव होते हैं। (५३-५४) उक्तं च...... पज्जतापजत्ता विति चउ अस्सन्निणो अवहरन्ति ।
अंगुल संखसांखप्पएस भइयं पुढो पयरं ॥५५॥
इति मानम् ॥३२॥