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अथवा इनको दीर्घकालिक अथवा दृष्टिवाद उपदेशक संज्ञा नहीं होती है, केवल हेतुवादि संज्ञा होती है, परन्तु इससे उनमें संज्ञित्व नहीं कहलाता । अतः उनको असंज्ञी कहा जाता है। (४०)
यह संज्ञिता द्वार है । (२३) केवलं क्लीबवेदाश्च मिथ्यादृष्टय एव ते । सम्यग् दृशो ह्यल्पकालं विद्युज्योतिर्निदर्शनात् ॥४१॥ ..
अब इनका वेद और दृष्टि विषय कहते हैं- विकलेन्द्रिय जीव का केवल नपुंसक वेद होता है और वे मिथ्या दृष्टि ही होते हैं क्योंकि उनको विद्युत की ज्योति के समान अल्पकाल तक ही सम्यक् दृष्टि रहती है। (४१) ।
सास्वादनाख्य सम्यक्त्वे किंचित् शेषे मतिं गताः । .. विकलाक्षेषु जायन्ते ये के चित्तदपेक्षया ॥४२॥ अपर्याप्त दशायां स्युः सम्यग् दृशोऽपि केचन । . पर्याप्तत्वे तु सर्वेऽपि मिथ्यादृष्टय एव. ते ॥४३॥ युग्मं ।
इति वेदः दृष्टिश्च ॥२४-२५॥ सास्वादन समकित कुछ शेष रह जाय तब मृत्यु प्राप्त कर यदि कोई प्राणी विकलेन्द्रिय में उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से अपर्याप्त दशा में कई सम्यक् दृष्टि जीव भी होते हैं परन्तु पर्याप्त दशा में तो सर्व मिथ्या दृष्टि ही होते हैं। (४२-४३)
ये वेद और दृष्टि द्वार हैं। (२४-२५) मतिश्रुताभिधं ज्ञानद्वयं सम्यग्दृशां भवेत् । मत्यज्ञान श्रुताज्ञाने तेषां मिथ्यात्विनां पुनः ॥४४॥
इति ज्ञानम् ॥२६॥ . अब ज्ञान के विषय में कहते हैं- सम्यक् दृष्टि विकलेन्द्रिय जीव को मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान ये दो ज्ञान होते हैं परन्तु उनमें जो मिथ्यात्वी हैं उनको मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान होता है। (४४)
यह ज्ञान द्वार है । (२६) - अचक्षुर्दर्शनोपेता द्वित्र्यक्षाश्चतुरिन्द्रियाः) सचक्षुर्दर्शना चक्षुर्दर्शनाः कथिता जिनैः ॥४५॥
इति दर्शनम् ॥२७॥