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अब इनके स्थान के विषय में कहते हैं- छह प्रकार के विकलेन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक के एक देश भाग के अन्दर होते हैं तथा तिर्यग् लोक में नदी, कुएं, तलाब, बावड़ी आदि में भी होते हैं तथा सर्व द्वीपों, समुद्र और जलाशयों में भी होते हैं। उपघात से, समुद्रघात से और स्व-स्व स्थान से भी वे लोक के असंख्यवें भाग में रहते हैं। (११ से १३)
ये स्थान द्वार है। (२) आहारांगेन्द्रियोच्छ्वास भाषाख्या एषु पंच च ।। पर्याप्तयस्तथा प्राणाः षट् सप्ताष्टौ यथाक्रमम् ॥१४॥ चत्वारः स्थावरोक्तास्ते जिह्वावाग्बलवृद्धितः । षड्वीन्द्रियेष्वथैकैकेन्द्रिय वृद्धिस्ततो द्वयोः ॥१५॥ .
इति पर्याप्तयः ॥३॥ .. । अब पर्याप्ति के विषय में कहते हैं- इनकी पांच पर्याप्ति हैं - '१.आहार पर्याप्ति, २. शरीर पर्याप्ति, ३. इन्द्रिय पर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति और ५. भाषा पर्याप्ति। तथा प्राण दो इन्द्रिय वालों के छः, तीन इन्द्रिय वालों के सात और चार इन्द्रिय वालों के आठ होते हैं। स्थावर के चार प्राण होते हैं। द्वीन्द्रिय को पांचवां जीभ-इन्द्रिय
और छठा वचन बल- ये छः प्राण होते हैं। त्रीन्द्रिय को एक इन्द्रिय बढ़ जाती हैपूर्व की ६ और १=७ सात प्राण हैं । चतुरिन्द्रय को एक और इन्द्रिय बढ़ने से अर्थात् ७+१=८ आठ प्राण होते हैं। (१४-१५) ,
यह पर्याप्ति द्वार है । (३) लक्षद्वयं च योनीनामेषु प्रत्येक मिष्यते । लक्षाणि कुलकीटीनां सप्ताष्ट नव च क्रमात् ॥१६॥
इति योनि संख्या कुल संख्या च ॥४-५॥ अब योनि संख्या और कुल संख्या कहते हैं- इन प्रत्येक की दो लाख . योनियां हैं और कुल कोटि द्वीन्द्रिय की सात लाख, त्रीन्द्रिय की आठ लाख और चतुरिन्द्रिय की नौ लाख होती हैं। (१६)
यह चौथा योनि द्वार और पांचवां कुल कोटि द्वार कहा है। (४-५) विवृत्ता योनिरेतेषां त्रिविधा सा प्रकीर्तिता । सचित्ताचित्त मिश्राख्या भावना तत्र दर्श्यते ॥१७॥