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इस सम्बन्ध में अन्यत्र स्थान पर कहा है- 'उत्कृष्टतः शंख बारह योजन का, गुल्मी तीन कोस की, और भौंरा एक योजन का होता है।' यह देहमान द्वार है। (११)
वेदनोत्यः कषायोत्थो मरणान्तिक इत्यपि । विकलेन्द्रिय जीवानां समुद्घाता अमी त्रयः ॥२८॥
इति समुद्घाता ॥१२॥ इन विकलेन्द्रिय जीवों का समुद्घात तीन प्रकार का होता है - १. वेदना से उत्पन्न होता है, २. कषाय से उत्पन्न होता है और ३. मरणान्तिक से होता है। (२८)
यह समुद्घात द्वार है। (१२) . पृथ्व्याद्याः स्थावराः पंच द्वीन्द्रियाद्यास्त्रयः पनः । संख्येयजीविनः पंचेन्द्रिय तिर्यग् नरा अपि ॥२६॥ स्थानकेषु दशस्वेषु गच्छन्ति विकलेन्द्रियाः । दशभ्य एवैतेभ्यश्चोत्पद्यन्ते विकलेन्द्रियाः ॥३०॥ युग्मं ।
अब गति और आगति के विषय में कहते हैं- पृथ्वीकाय आदि पांचों स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय तथा संख्यात आयुष्य वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य, इन दसों स्थानकों के अन्दर विकलेन्द्रिय जीवों की गति है और इन्हीं दसों स्थानों में से इनकी आगति होती है। असंख्यात् आयुष्य वाले तिर्यंच और मनुष्य की गति में वे जाते नहीं हैं, वैसे ही वहां से आते भी नहीं हैं। (२६-३०) .
न देव नारकासंख्य जीवतिर्यंगनरेषु च । एषां गम गमौ तस्मात् द्विगता द्वयागता इति ॥३१॥
देवता अथवा नारकी में भी उनकी गति या आगति नहीं है । इसलिए उनको मनुष्य और तिर्यंच की दो ही गति और दो ही आगति रहती हैं। (३१).
उपपात च्यवनयोर्विरहो द्वीन्द्रियादिषु । अन्तर्मुहूर्तमुत्त्कृष्टो जघन्यः समयावधिः ॥३२॥ उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते चैके न समयेन ते । . एको द्वौ वा त्रयः संख्या असंख्या विकलेन्द्रियाः ॥३३॥ -
इति गतागती ॥१३-१४॥ विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति और च्यवन का विरह उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त का है और जघन्यतः एक समय का कहा है। इन विकलेन्द्रिय जीवों की एक समय