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(४२३) क्योंकि वे अनन्तकाल पर्यन्त और अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निगोद में रहकर पुनः बादर पृथ्वी- कायादि में उत्पन्न होते हैं। (३५७-३५८)
* बादरस्य निगोदस्यान्तरमुत्कर्षतो भवेत् ।
कालोऽसंख्यः पृथिव्यादि कायस्थितिमितश्च सः ॥३५६॥
बादर निगोद का उत्कृष्ट अन्तर असंख्य काल का है और इसका मान पृथ्वीकाय आदि की स्थिति के समान है। (३५६)
सामान्यतः स्थूलवनकायत्वेऽप्येतदन्तरम् । जघन्यतस्तु सर्वेषामन्तर्मुहूर्तमेव तत् ॥३६०॥
. . इत्यन्तरम् ॥३५॥ सामान्यतः बादर वनस्पतिकाय के विषय में भी इतना ही अन्तर है परन्तु जघन्य अन्तर तो सर्व का अन्तर्मुहूत्त के अनुसार है। (३६०)
इस तरह अन्तर द्वार पूर्ण हुआ। (३५) स्वरूपमेकेन्द्रिय देहिनां मयाधियाल्पया किंचिदिदं समुध्धृतम् ।
श्रुतादगाधादिव दुग्ध वारिधे: जलं स्व चंच्या शिशुना पतत्रिणा ॥३६१॥
जिस तरह एक पक्षी का बच्चा अपनी चोंच द्वारा अगाध समुद्र में से अल्प जल ग्रहण करता है वैसे ही मैंने अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार श्रुत सागर में से यह एकेन्द्रिय जीवों का किंचित् मात्र स्वरूप ग्रहण करके कहा है। (३६१) ... विश्वाश्चर्यद कीर्ति-कीर्तिविजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष- .. .. द्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः ।
काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे . सर्यो निर्गलितार्थ सार्थ सुभगः पूर्णः सुखं पंचमः ॥३६२॥
... ॥इति पंचम सर्गः ॥ ..जिसकी कीर्ति सम्पूर्ण विश्व में आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है, ऐसे श्रीमान्
कीर्तिविजय उपाध्याय के अन्तेवासी और माता राजश्री और पिता तेजपाल के सुपुत्र विनय विजय उपाध्याय ने जो इस जगत् के निश्चित तत्त्वों को दीपक सदृश प्रकट करने वाले ग्रन्थ की रचना की है, उसके अन्दर से झरते सार के कारण सुभग पांचवां सर्ग विघ्न रहित पूर्ण हुआ है। (३६३)
॥पांचवां सर्ग समाप्त ॥