________________
( ४१७ )
तावन्तो बादराः पर्याप्तकाः स्युः वायुकायिकाः ।
'इदं प्रज्ञापना वृत्ता वाद्यांगा विवृतौत्विदम् ॥३२२॥ युग्मं ।
घन रूप किये लोकाकाश के असंख्यवें भाग में रहे असंख्य प्रतर में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने बादर पर्याप्त वायुकाय के जीव होते हैं। इस तरह प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में कहा है । परन्तु आचारांग सूत्र के विवरण में इस तरह कहा है कि- (३२१-३२२)
सुसंवर्त्तिलोकैक प्रतरासंख्य भागकैः ।
प्रदेशैः प्रमिताः स्थूला पर्याप्तक्ष्माम्बु वायवः ॥ ३२३॥
क्षेत्र पल्योपमासंख्य भाग प्रदेश सम्मिताः । पर्याप्ता बादर हविर्भुजः प्रोक्ताः पुरातनैः ॥३२४॥
संवर्तित लोक के एक प्रतर के असंख्य भाव वाले प्रदेश जितने है उतने स्थूल अपर्याप्त पृथ्वी, अप् और वायुकाय के जीव हैं और क्षेत्र पल्योपम के असंख्यावतें भाग में जितने प्रदेश हैं उतने पर्याप्त बादर अग्निकाय के जीव हैं । (३२३-३२४)
संवर्त्तित चतुरस्त्रीकृत लोकश्रेण्यसंख्य भागगतैः।
वियदंशैः पर्याप्तास्तुल्याः प्रत्येकतरु जीवाः ॥३२५॥
तथा संवर्त्तित और चौरस किये लोक श्रेणि के असंख्यवें भाग में रहे आकाश प्रदेश कें सदृश पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति के जीव हैं । (३२५)
'संवर्त्तित चतुरस्त्री कृतस्य लोकस्य यः प्रतर एकः ।
तदसंख्य भागखांश प्रमिताः पर्याप्त बादर निगोदाः ॥ ३२६ ॥
अतः परं तु ग्रन्थ द्वयेऽपि तुल्यमेव ॥
और संवर्त्तित तथा चौरस किये लोकाकाश का एक प्रतर होता है, उस प्रतर के असंख्य भाग प्रमाण आकाश प्रदेश जितने पर्याप्त बादर निगोद हैं। (३२६)
इसके बाद की बातें दोनों ग्रन्थों की समान हैं।
बादराः स्थावराः सर्वेऽप्येते पर्याप्तकाः पुनः ।
स्युः प्रत्येकमसंख्येय लोका भ्रांशामिताः खलु ॥ ३२७॥
ये सर्व पर्याप्त बादर स्थावर प्रत्येक लोकाकाश के असंख्यातवें अंश समान निश्चय ही हैं। (३२७)