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लोकामानाभ्रखंडा नामनन्तानां प्रदेशकैः । तुल्याः स्थूलानन्तकाय जीवाः प्रोक्ता जिनेश्वरैः ॥३२८॥
इति मान् ॥३२॥ तथा बादर अनंतकाय जीव लोक प्रमाण अनंत आकाश खंडों के प्रदेशों के जितने होते हैं ऐसा जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है। (३२८)
यह मान अधिकार पुरा हुआ । (३२) पर्याप्ताः बादरः सर्वस्तोकः पावक कायिकाः । असंख्येय गुणास्तेभ्यः प्रत्येक धरणीरुहः ॥३२६॥ ... असंख्येय गुणास्तेभ्यः स्युर्बादर निगोदकाः । तेभ्यो भूकायिकास्तेभ्यश्चापस्तेभ्यश्च वायवः ॥३३०॥ . तेभ्योऽनन्ता गुणा: स्थूलाः स्युर्वनस्पति कायिकाः। सामान्यतो बादरश्चाधिकाः पर्याप्तकास्ततः ॥३३१॥
अब अल्प बहुत्व के विषय में कहते हैं- पर्यास बादर अग्निकाय के जीव सबसे अल्प हैं। इससे भी प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव असंख्य गुणा हैं, इससे असंख्य गुना बादर निगोद के जीव हैं, इससे भी पृथ्वीकाय के जीव हैं, इससे अप्काय हैं और इससे वायुकाय जीव असंख्य गुणा हैं तथा इससे भी बादर वनस्पतिकाय के जीव अनन्ता गुणा हैं और इससे भी सामान्य बादर पर्याप्त अधिक हैं। (३२६ से ३३१)
स्वस्व जातीय पर्याप्तकेभ्योऽसंख्य गुणाधिकाः। अपर्याप्ताः स्वजातीय देहिनः परिकीर्तिताः ॥३३२॥ यबादरस्य पर्याप्त कस्यैकैकस्य निश्रया ।
असंख्येयाः अपर्याप्ताः तजातीयाः भवन्ति हि ॥३३३॥
तथा अपनी-अपनी जाति वाले अपर्याप्त स्व स्व जातीय पर्याप्त करते असंख्य गुणा हैं, क्योंकि प्रत्येक बादर पर्याप्त की निश्रा में असंख्य बादर अपर्याप्त होते हैं। (३३२-३३३)
तथोक्तं प्रज्ञापनायाम्-"पजत्तग निस्साए अपजत्तगा वक्कमन्तिाजत्थएगो तत्थ नियमा असंखेजा ॥"
इति अल्पबहुत्वम् ॥३३॥