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अब आगति के विषय में कहते हैं; एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रय तथा संख्य जीव, गर्भज, संमूर्छिम पंचेन्द्रिय, तिर्यंच और मनुष्य, सर्व पर्याप्ता और अपर्याप्ता तथा भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क व प्रथम दो देवलोक के देव- ये सब जीव मृत्यु के बाद प्रत्येक वनस्पतिकाय में तथा बादर पृथ्वीकाय और अप्काय में आते हैं। अपवाद से जो देव है वे पर्याप्त जाति में ही आते हैं, अपर्याप्त में नहीं आते। (२६६ से २६८)
अपर्याप्तेषु त्रिष्वेषु निगोदाग्न्यनिलेषु च । उत्पद्यन्ते च पूर्वोक्ताः प्राणिनो निर्जरान्विना ॥२६॥
और देवों के अलावा पूर्वोक्त सर्व प्राणी मृत्यु के बाद अपर्याप्त निगोद, अग्निकाय और वायुकाय- इन तीन योनि में आते हैं- उत्पन्न होते हैं। (२६६)
निर्जरोत्पत्ति योग्यानामुक्तः प्रत्येकभूरुहाम् । .... विशेषः पंचमांगस्यैक विंशादि शत द्वये ॥३००॥ .. :
तथा देव जाति में उत्पन्न होने की योग्यता वाले प्रत्येक वनस्पतिकाय का विशेष वर्णन पांचवें अंग भगवती सूत्र में इक्कीसवें तथा बाईसवें शतक में कहा है। (३००)
शाल्यादिधान्य जातीनां पुष्पे बीजे फलेषु च । देव उत्त्पद्यतेऽन्येषु न मूलादिषु सप्तसु ॥३०१॥
देव मृत्यु के बाद शाल आदि जाति वाले अनाजों के पुष्प, बीज और फल में आकर उत्पन्न होते हैं, इसके शेष मूल-जड़ आदि सात में उत्पन्न नहीं होते हैं। (३०१)
कोरंटकादि गुल्मानां देवः पुष्पादिषु त्रिषु । उत्पद्यते न मूलादि सप्तके किल शालिवत् ॥३०२॥
इसी तरह कोरंटक आदि गुल्म के पुष्प-फूल, बीज और फल- इन तीन में देव उत्पन्न होते हैं, इसके मूल आदि सात में उत्पन्न नहीं होते हैं। शाल आदि के समान ही समझना। (३०२)
इक्षुवाटिक मुख्यानां मूलादि नवके सुरः । उत्पद्यते नैव किन्तु स्कन्धे उत्पद्यते परम् ॥३०३॥ .