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जघन्यमन्तरं त्वेषामन्तर्मुहूर्तमीरितम् । 'क्ष्मादिष्वन्तर्मुहूर्तं तत् स्थित्वोत्पत्तौ भवेदिह ॥१६०॥
इति अन्तरम् ॥३५॥ उनका अन्तर जघन्य रूप में अन्तर्मुहूर्त का है और उस अन्तर में पृथ्वी कायत्व आदि प्राप्त कर उसमें अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः अपने मूल जन्म में आता है। (१६०) .
इस तरह से सूक्ष्म जीवों का अन्तर विषय समझाया है। प्रायो भवसंवेद्यो महाल्प बहुता त्वनेक जीवानाम् ।
वक्तव्ये इत्युभयं वक्ष्ये जीव प्रकरणान्ते ॥१६१॥ - अब जो रह गये हैं उनका भवसंवेद्य और महा अल्प बहुत्व में विवेषण है। परन्तु उन दोनों के द्वार के विषय में अनेक जीवों के सम्बन्ध में कहना है। अतः इस विषय में जीव प्रकरण के अन्त में कहा जायेगा। (१६१)
वर्णिताः किमपि सूक्ष्म देहिनः सूक्ष्मदर्शि वचनानुसारतः ।
यत्तु नेह कथितं विशेषतः तद् बहुश्रुत गिरा वसीयताम् ॥१६२॥ . इस तरह से सूक्ष्म जीवों का सूक्ष्मदर्शी महापुरुषों के वचनों के अनुसार कुछ वर्णन किया है जो यहां बहुत कम कहा गया है। वह विशेष जानने की जिसको इच्छा हो उनको वह बहुश्रुत के वचनों से जान लेना चाहिए । (१६२)
• विश्वाश्चर्यदं कीर्ति कीर्ति विजय श्रीवाचकेन्द्रान्तिष - ' द्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः।
काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे, सो निर्गलितार्थ सार्थ सुभगः पूर्णश्चतुर्थः सुखम् ॥१६३॥ -
॥इति चतुर्थः सर्गः ॥ . सारे जगत् में आश्चर्यकारी जिनकी कीर्ति है, ऐसे श्री कीर्ति विजय जी उपाध्याय के अन्तेवासी और माता राजश्री तथा पिता श्री तेजपाल के सुपुत्र श्री विनय विजय उपाध्याय ने जगत् में से निश्चय तत्त्वों को दीपक के समान प्रगट करने वाले इस ग्रन्थ की रचना की है। उसके अन्दर से निकलते सार के कारण सुभग यह चतुर्थ सर्ग विघ्न रहित सम्पूर्ण हुआ है। (१६३)
चौथा सर्ग समाप्त।