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(३५४)
- इसका भावार्थ इस तरह है- अंगुल के एक असंख्यवें भाग में जो आकाश प्रदेश रहते हैं उनमें से प्रत्येक क्षण-समय में एक-एक लेते जितने काल चक्र होते हैं उतने बादर रूप में उत्कृष्ट स्थिति कही है और इसे पूर्ण करके पुनः सूक्ष्मत्व प्राप्त करते हैं । जितना १५२वें श्लोक में कहा है उतना उत्कृष्ट अन्तर पड़ता है वह युक्त है। (१५३-१५४)
सूक्ष्ममाभ्भोऽग्नि मरुतामिह प्रत्येकमन्तरम् । . . . लघुस्यादन्तर्मुहूर्तमनंताद्धामितं गुरु ॥१५॥
सूक्ष्म पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय और वाउकाय- इनमें प्रत्येक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल होता है। (१५५)
तच्च सूक्ष्मक्ष्मादि जन्तोः सूक्ष्म स्थूलवनस्पतौ । गत्वा स्थित्वानन्त कालं सूक्ष्मक्ष्मादित्वमीयुषः १५६॥
और उस अन्तर में सूक्ष्म पृथ्वीकाय आदि जन्तु, सूक्ष्म स्थूल वनस्पतिकाय रूप प्राप्त करके और वहां अनन्त काल रहकर पुनः सूक्ष्म पृथ्वीकायत्व आदि प्राप्त करता है। (१५६)
वनस्पतेश्च सूक्ष्मस्यान्तरमुत्कर्षतो भवेत् । काल चक्राण्यसंख्येय लोकमानानि पूर्ववत् ॥१५७॥
और सूक्ष्म वनस्पतिकाय का उत्कृष्ट अन्तर पूर्ववत् असंख्य लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण काल चक्र जितना है। (१५७).
तच्च सूक्ष्मक्ष्मादित योत्पद्य सूक्ष्म वनस्पतेः । । स्थित्वोक्त कालं पुनरप्युत्पत्रस्य वनस्पतौ ॥१५८॥
और उस अन्तर में सूक्ष्म वनस्पतिकाय का जीव, सूक्ष्म पृथ्वीकायत्व आदि प्राप्त करके और वहां पूर्वोक्त काल तक रहकर पुनः अपना मूल वनस्पति कायत्व प्राप्त करता है। (१५८)
न सम्भवति चैतेषामनन्त कालमन्तरम् । विना वनस्पतीन् कुत्राप्यनन्त स्थित्यभावतः ॥१६॥
उनका अन्तर अनन्त काल जितना होता है। इस तरह संभव नहीं हो सकता क्योंकि वनस्पतिकायत्व बिना अन्य किसी जन्म में अनन्त स्थिति का सद्भावजाति नहीं है। (१५६)