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उच्छ्वासश्चात्मनो धर्मो निर्विवादमिदं खलु । ... धर्मश्च धर्मिणं ब्रूते स्वाविनाभावतः स्फूटम् ॥३५॥
तथा उच्छ्वास आत्मा का धर्म है, यह बात भी निर्विवाद है और धर्म हैयही कह देता है कि कोई धर्मी होना ही चाहिए क्योंकि धर्मी के बिना धर्म अकेला नहीं रह सकता है। (३५) किं च .....दृश्यते दोह दोत्पत्तिद्रूणामपि नृणामिव ।
यत्तत्प्राप्य फलन्त्येते हष्टाःशुष्यन्ति चान्यथा ॥३६॥. और वृक्ष को भी मनुष्य के समान दोहद उत्पन्न होता दिखता है। क्योंकि यह दोहद पूर्ण होता है तभी ही हर्षित होकर फल देता है, अन्यथा सूख जाता है। (३६)
दोहदश्चात्मनो धर्मः कथं नात्मानमाक्षिपेत् । इच्छा रूपो दोहदो हि नेच्छावन्तं बिना भवेत् ॥३७॥ •
तथा यह दोहद आत्मा का धर्म है, इसलिए यह दोहद आत्मा- चैतन्य का सद्भाव जिसको कहते हैं क्या उसे सिद्ध नहीं करता ? इच्छा रूप दोहंद इच्छा वाले बिना कहीं देखा-सुना है ? (३७) ,
संज्ञा नियत संकोच विकास प्रमुखा अपि । संज्ञिनं कथमात्मानं न ज्ञापयन्ति युक्तिभिः ॥३८॥
तथा वृक्षों का संकोच, विकास आदि नियत संज्ञाएं भी हैं । ये संज्ञा भी क्या युक्ति- पूर्वक अपनी आत्मा को संज्ञी नहीं बताती हैं ? (३८)
यद्वा तारतम्यमेवं द्रुमेष्वपि नरेष्विव । के ऽप्येरंडादिवन्नीचा: केऽप्याम्रादिवदुत्तमाः ॥३६॥ उत्कटाः कंटकैः केचित् केचिदत्यन्त कोमलाः । कुटिलाः केऽपि सरलाः कुब्जा दीर्घाश्च केचन् ॥४०॥ हृद्यवर्णगन्धरस स्पर्शाः केचित्ततोऽन्यथा । सविषा निर्विषाः केऽपि सफला निष्फलाः परे ॥४१॥ जाताः केचिदवकरे सूद्यानादौ च के चन् । केचिच्चिरायुषः शस्त्राद्यैः केचित्क्षिप्रमृत्यवः ॥४२॥ .
जैसा अन्य मनुष्यों में होता है वैसा वृक्षों में भी तारतम्य मिलता है । देखो जैसे कि- कई वृक्ष अरंड आदि के समान कनिष्ट होते हैं तो कई आम आदि के